वाल्मीकि व्याकुल
है
आँगन में तुलसी के पात झर रहे हैं
अब भोले बचपन के दाँत झर रहे हैं!
नन्हीं की आँखों में
आग जल रही है
दादा की छाती पर
रेल चल रही है
शिशु गुब्बारों में प्रभात भर रहे हैं!
काग़ज़ के फूलों पर
इत्र महमहाता है
नई तितलियों से
घर आँगन भर जाता है
लोग आसमानों पर लात धर रहे हैं!
७ जनवरी २००८