युधिष्ठिर -
ऐसे भयानक महायुद्ध को
अर्द्धसत्य, रक्तपात,
हिंसा से जीत कर
अपने को बिलकुल हारा
हुआ अनुभव करना
यह भी यातना ही है
जिनके लिए युद्ध किया
है
उनको यह पाना कि वे सब
कुटुम्बी अज्ञानी हैं,
जड़ हैं, दुर्विनीति
हैं, या जर्जर हैं,
सिंहासन प्राप्त हुआ है
जो
यह माना कि उसके पीछे
अन्धेपन की
अटल परम्परा है;
जो हैं प्रजाएँ
यह माना कि वे पिछले
शासन के
विकृत साँचे में हैं
ढली हुई
और,
खिड़की के बाहर गहरे
अँधियारे में
किसी ऐसे भावी अमंगल
युग की आहट पाना
जिसकी कल्पना ही थर्रा
देती हो,
फिर भी
जीवित रहना, माथे पर
मणि धारण करना
वधिक अश्वत्थामा का,
यातना यह वह है
बन्धु दुर्योधन।
जिसको देखते हुए तुम
कितने भाग्यशाली थे
कि पहले ही चले गए।
बाकी बचा मैं
देखने को अँधियारे में
निर्निमेष भावी अमंगल
युग
किसको बताऊँ किन्तु,
मेरे ये कुटुम्बी
अज्ञानी हैं, दुर्विनीत
हैं,
या जर्जर हैं,
(नेपथ्य में गर्जन)
शायद फिर भीम ने
किसी का अपमान किया
(भीम का अट्टाहास)
यह है मेरा
हासोन्मुख कुटुम्ब,
जिसे कुछ ही वर्षों में
बाहर घिरा हुआ
अँधेरा निगल जाएगा,
लेकिन जो तन्मय हैं
भीम के आमानुषिक
विनोदों में।
(अन्दर से सब का कई बार
समवेत अट्टहास। विदुर
तथा कृपाचार्य का
प्रवेश)
विदुर-
महाराज!
अब हो चला है असहनीय
कैसे रुकेगा
युधिष्ठिर-
विद्रूप यह भीम का?
अब क्या हुआ विदुर?
विदुर-
वही,
प्रतिदिन की भाँति
आज भी युयुत्सु का
अपमान किया भीम ने।
कृपाचार्य-
और सब ने उसके
गूँगेपन का आनन्द लिया।
युधिष्ठिर-
पता नहीं क्या हो क्या
है
युयुत्सु की वाणी को।
विदुर-
अब तो वह बिलकुल ही
गूँगा है।
पिछले कई वर्षों से
उसको घृणा ही मिली अपने
परिवार से
प्रजाओं से
उसकी थी अटल आस्था
कृष्ण पर
कृपाचार्य-
पर वे शापग्रस्त हुए।
आश्रित था आप का
पर भीम की कटूक्तियों
से मर्माहत होकर
जब अन्धे धृतराष्ट्र और
गान्धारी
वन में चले गए
युधिष्ठिर-
उस दिन से वाणी
उसकी बिलकुल ही जाती
रही।
भोगी है उसने ही यातना
अपने ही बन्धुजनों के
विरुद्ध
जीवन का दाँव लगा देना,
पर अन्त में विश्वास
टूट जाना,
लांछन पाना
और वह भी न कर पाना
किया जो नरपशु
अश्वत्थामा ने।
कृपाचार्य-
(पुन: भीम का गर्जन)
महाराज!
चल कर अब आप ही
आश्वासन दें युयुत्सु
को।
(युधिष्ठिर और उनके साथ
विदुर तथा कृपाचार्य
अन्दर जाते हैं। प्रहरी
आगे आकर वार्तालाप करने
लगते हैं)
प्रहरी १
- कोई विक्षिप्त
हुआ
प्रहरी २-
कोई शापग्रस्त हुआ
प्रहरी १-
हम जैसे पहले थे
प्रहरी २-
वैसे ही अब भी हैं
प्रहरी १-
शासक बदले
प्रहरी २-
स्थितियाँ बिलकुल वैसी
हैं
प्रहरी १-
इससे तो पहले के ही
शासक अच्छे थे
अन्धे थे...
लेकिन वे शासन तो करते
थे
ये तो संतज्ञानी हैं
प्रहरी २-
शासन करेंगे क्या?
प्रहरी १
- जानते नहीं हैं ये
प्रकृति प्रजाओं की
प्रहरी २-
ज्ञान और मर्यादा
प्रहरी १-
उनका करें क्या हम?
प्रहरी २-
उनको क्या पीसेंगे?
प्रहरी १-
या उनको खायेंगे?
या उनको ओढ़ेंगे?
या उन्हें बिछायेंगे?
प्रहरी २-
हमको तो अन्न मिले
प्रहरी १-
निश्चित आदेश मिले
एक सुदृढ़ नायक मिले
अन्धे आदेश मिलें
प्रहरी २-
नाम उन्हें चाहे हम
युद्ध दें या शान्ति
दें।
प्रहरी १-
जानते नहीं ये प्रकृति
प्रजाओं की।
(अन्दर से युयुत्सु को
आता देखकर प्रहरी चुप
हो जाता है और पहले की
तरह जाकर विंग्ज में
खड़े हो जाते हैं।
युयुत्सु
अर्द्ध-विक्षिप्त की-सी
करूणोत्पादक चेष्टाएँ
करता हुआ दूसरी ओर निकल
जाता है। क्षण भर बाद
विदुर और कृपाचार्य
प्रवेश करते हैं।)
विदुर -
तुमने क्या देखा
युयुत्सु को?
(प्रहरी नेपथ्य की ओर
संकेत करते हैं।)
कृपाचार्य-
वह भी अभागा है
भटक रहा है राजमार्ग
पर।
विदुर-
महलों में उसका अपमान
क्या कम होता है
जाता है बाहर
और अपमानित होने
प्रजाओं से।
कृपाचार्य-
वह देखो!
भिखमंगे, लंगड़े, लूले,
गन्दे बच्चों की
एक बड़ी भीड़ उस पर
ताने कसती
पीछे-पीछे चली आती हैं।
विदुर-
आह, वह पत्थर खींच मारा
किसी ने।
(चिंतित हो उसी ओर जाते
हैं।)
कृपाचार्य-
युधिष्ठिर के राज्य में
नियति है यह युयुत्सु
की
जिसने लिया था पक्ष
धर्म का।
(विदुर युयुत्सु को
लेकर आते हैं। मुँह से
रक्त बह रहा है। विदुर
उत्तरीय से रक्त पोंछते
हैं। पीछे-पीछे वही
गूँगा सैनिक भिखमंगा
है। वह युयुत्सु को
पत्थर फेंक कर मारता है
और वीभत्स हँसी हँसता
है।)
विदुर -
प्रहरी इस भिक्षुक को
किसने यहाँ आने दिया
युयुत्सु! तुम मेरे साथ
चलो
(भिखमंगा पाशविक
इंगितों से कहता है -
इसने मेरे पाँव तोड़
दिए, मैं प्रतिशोध
क्यों न लूँ?)
कृपाचार्य -
पाँव केवल तोड़े
तुम्हारे
युयुत्सु ने,
किंतु आज तुमको मैं
जीवित नहीं छोडूँगा।
(प्रहरी के हाथ से भाला
लेकर दौड़ता है। गूँगा
भागता है। युयुत्सु आगे
आकर कृपाचार्य को रोकता
है और भाला खुद ले लेता
है और सीने पर भाला रख
कर दबाते हुए नेपथ्य
में चला जाता है।
नेपथ्य से भयंकर
चीत्कार। विदुर दौड़ कर
अन्दर जाते हैं।)
विदुर-
(नेपथ्य से)
महाराज
कर ली आत्महत्या
युयुत्सु ने
दौड़ो कृपाचार्य।
(कृपाचार्य जाते हैं।
प्रहरी पुन: आगे आते
हैं)
प्रहरी १-
युद्ध हो या शांति हो
प्रहरी २-
रक्तपात होता है
प्रहरी १-
अस्त्र रहेंगे तो
प्रहरी २-
उपयोग में आएँगे ही
प्रहरी १-
अब तक वे अस्त्र
प्रहरी २-
दूसरों के लिए उठते थे
प्रहरी १-
अब वे अपने ही विरुद्ध
काम आएँगे
प्रहरी २-
यह जो हमारे अस्त्र अब
तक निरर्थक थे
प्रहरी १-
कम से कम उनका
प्रहरी २-
आज कुछ तो उपयोग हुआ
(अन्दर समवेत अट्टाहास।
कृपाचार्य आते हैं।)
कृपाचार्य-
इस पर भी हँसते हैं
वे सब अज्ञानी, मूढ़,
दुर्विनीत, अहंग्रस्त
भाई युधिष्ठिर के
रक्त ये युयुत्सु के
लिख जो दिया है उन
हमलों की भूमि पर
समझ नहीं रहे हैं उसे
ये आज!
यह आत्महत्या होगी
प्रतिध्वनित
इस पूरी संस्कृति में
दर्शन में, धर्म में,
कलाओं में
शासन-व्यवस्था में
आत्मघात होगा बस अंतिम
लक्ष्य मानव का।
(विदुर जाते हैं)
विदुर -
मुक्ति मिल जाती है सब
को कभी न कभी
वह जो बन्धुघाती है
हत्या जो करता है माता
की, प्रिय की
बालक की, स्त्री की,
किन्तु आत्माघाती
भटकता है अँधियारे
लोकों में
सदा-सदा के लिए बन कर
प्रेत।
कृपाचार्य -
परिणति यही थी युयुत्सु
की
विदुर! मैं युधिष्ठिर
के ऊँचे महलों में
आज सहसा सुन रहा हूँ
पगध्वनि अमंगल की
अब तक मैं रह कर यहाँ
शिक्षा देता रहा
परीक्षित को अस्त्रों
की
लेकिन अब यह जो
आत्मघाती, नपुंसक,
हासोन्मुख प्रवृत्ति
उभर आई है
अब तो मैं छोड़ दूँ
हस्तिनापुर
इसी में कुशल है विदुर!
आत्मघात उड़ कर लगता है
घातक रोगों-सा।
विदुर-
किन्तु विप्र
कृपाचार्य-
नहीं! नहीं!
योद्धा रहा हूँ मैं
आत्मघात वाली इस
युधिष्ठिर की संस्कृति
में
मैं नहीं रह पाऊँगा।
(जाता है)
विदुर-
राज्य में युधिष्ठिर के
होंगे आत्मघात
विप्र लेंगे निर्वासन
कैसी है शान्ति यह
प्रभु जो तुमने दी है?
होगा क्या वन में
सुनेंगे धृतराष्ट्र जब
यह मरण युयुत्सु का?
युधिष्ठिर-
(प्रवेश कर)
प्राण है अभी भी शेष
कुछ-कुछ युयुत्सु में।
विदुर-
यदि जीवित है
तो आप उसे भेज दें
मेरी ही कुटिया में
रक्षा करूँगा, परिचर्या
करूँगा
उसने जो भोगा है कृष्ण
के लिए अब तक
उसका प्रतिदान जहाँ तक
मैं दे पाऊँगा
दूँगा
(विदुर और युधिष्ठिर
जाते हैं। प्रकाश धीमा
होता है)
प्रहरी १-
कैसा यह असमय
अँधियारा है।
प्रहरी २-
धूममेघ घिरते जाते हैं
वन-खण्डों से
प्रहरी १-
लगता है लगी हुई है
भीषण दावाग्नि।
(बातें करते-करते
प्रहरी नेपथ्य में चले
जाते हैं।)
(अन्दर का पर्दा उठता
है। जलते हुए वन में
धृतराष्ट्र और संजय)
धृतराष्ट्र-
जाने दो संजय
अब बचा नहीं पाओगे मुझे
आज
जर्जर हूँ, आग से कहाँ
तक मैं भागूँगा?
संजय-
थोड़ी ही दूर पर निरापद
स्थान है
महाराज चलते चलें!
(पीछे मुड़कर)
आह माता
गान्धारी
वहीं बैठ गईं।
माता, ओ माता।
धृतराष्ट्र-
संजय
अब सब प्रयत्न व्यर्थ
है!
छोड़ दो तुम मुझे यहीं,
जीवन भर में
अन्धेपन के अँधियारे
में भटका हूँ
अग्नि है नहीं, यह है
ज्योतिवृत्त
देखकर नहीं यह सत्य
ग्रहण कर सका तो आज
मैं अपनी वृद्ध
अस्थियों पर
सत्य धारण करूँगा
अग्निमाला-सा!
संजय- आग
बढ़ती आती है।
आह माता गान्धारी घिर
गयीं लपटों से
किसको बचाऊँ मैं
हाय असमर्थ हूँ!
गांधारी-
(अधजली हुई आती है।)
संजय तुम जाओ
यह मेरा ही शाप है
दिया था जो मैंने
श्रीकृष्ण को
अग्नि, आत्महत्या,
अधर्म, गृहकलह में जो
शतधा हो बिखर गया है
नगरों पर, वन में
संजय!
उसे कहना
अपने इस शाप की
प्रथम समिधा मैं ही
हूँ।
(नेपथ्य से पुकार
'गान्धारी।')
उनसे कहना
अपने इस शाप की
प्रथम समिधा मैं ही
हूँ।
(नेपथ्य से पुकार
'गान्धारी।')
धृतराष्ट्र -
आह!
छूट गई है वृद्ध कुन्ती
वन में,
लौटो गान्धारी।
संजय-
महाराज!
महाराज!
भीषण दावाग्नि अपनी
अगणित जिह्वाओं से
निकल गई होगी माँ
कुन्ती को
महाराज
स्थल यह निरापद है
मत जायें।
गांधारी-
संजय!
जो जीवन भर भटके
अँधियारे में
उनको मरने दो
प्राणान्तक प्रकाश में
(धृतराष्ट्र को लेकर
गान्धारी जाती है)
संजय-
देखकर
आह!
पूरे का पूरा धधकता हुआ
बरगद
दोनों पर टूट गिरा
फिर भी बचा हूँ शेष
फिर भी बचा हूँ शेष
लेकिन क्यों?
लेकिन क्यों?
मुझसा निरर्थक और होगा
कौन?
आ...ह!
(सहसा एक डाल उसके पाँव
पर टूट कर गिरती है। यह
पाँव पकड़ कर बैठ जाता
है।)
(पीछे का पर्दा गिरता
है।)
कथा-गायन-
यों गए बीतते
दिन पांडव शासन के
नित और अशान्त
युधिष्ठिर होते जाते
वह विजय और खोखली
निकलती आती
विश्वास सभी घन तम में
खोते जाते
(विंग से निकल कर
प्रहरी खड़े हो जाते
हैं। एक से भाले पर
युधिष्ठिर का किरीट है)
प्रहरी १-
यह है किरीट
चक्रवर्ती सम्राट का!
प्रहरी २-
धारण करो इसको
छोड़ दिया है
प्रहरी १-
जब से
अशकुन होने लगे हैं
हस्तिनापुर में।
प्रहरी २-
नीचे रख दो इसको
आते हैं महाराज!
(युधिष्ठिर और विदुर
आते हैं)
विदुर-
महाराज निश्चय यह
अशकुन सम्बन्धित है
युधिष्ठिर -
कृष्ण की मृत्यु से।
मुझको मालूम है।
दूतों ने आकर यह
सूचना मुझे दी है
कलह बढ़ गया है
यादव-कुल में!
विदुर-
अर्जुन को आप शीघ्र
भेजे द्वारकापुरी
युधिष्ठिर-
विदुर
मैं करूँगा क्या?
माता कुन्ती, गान्धारी
और
महाराज हो गए भस्म उस
दावाग्नि में
तर्पण करने के बाद
घाव खुल गए फिर
युयुत्सु के
और इतने दिनों बाद
उसका वह आत्मघात
फलीभूत होकर रहा
प्राण नहीं उसके बचा
सका
अब भी मैं जीवित रहूँगा
क्या
देखने को प्रभु का
अवसान
इन आँखों से?
नहीं! नहीं!
जाने दो
मुझको गल जाने दो
हिमालय के शिखरों पर।
विदुर-
महाराज!
वह भी आत्मघात है
शिखरों की ऊँचाई
कर्म की नीचता का
परिहार नहीं करती हैं।
वह भी आत्मघात है।
युधिष्ठिर-
और विजय क्या
है?
एक लम्बा और धीमा
और तिल-तिल कर फलीभूत
होने वाला आत्मघात
और पथ कोई भी शेष
नहीं अब मेरे आगे।
(बातें करते-करते दूसरी
ओर चले जाते हैं।
प्रहरी आगे आते हैं।)
प्रहरी १-
अशकुन तो निश्चय ही
होते हैं रोज़-रोज़।
प्रहरी २-
आँधी से कल
कंकड़-पत्थर की वर्षा
हुई।
प्रहरी १-
सूरज में मुण्डहीन
काले-काले कबन्ध हिलते
नज़र आते हैं।
प्रहरी २-
जिनको ये सब के सब
अपना प्रभु कहते थे
सुनते हैं
उनका अवसान
अब निकट ही है।
प्रहरी १-
कहते हैं
द्वारिका में
आधी रात काला
और पीला वेष
धारण किए
काल घूमा करता है।
प्रहरी २-
बड़े-बड़े धनुर्धारी
वाण बरसाते हैं
पर अन्धड़ बन कर
वह सहसा उड़ जाता है।
प्रहरी १-
जिनको ये सबके सब
अपना प्रभु कहते हैं
प्रहरी २-
जो अपने कन्धों पर
खेने वाले थे
इनका सब योगक्षेम
प्रहरी १-
वे ही इन सबको
पथभ्रष्ट और
लक्ष्यभ्रष्ट
नीचे ही त्याग कर
प्रहरी २-
करते हैं तैयारी
अपने लोक जाने की
प्रहरी १-
बेचारे ये सब के सब
अब करेंगे क्या?
प्रहरी २-
इन सब से तो हम दोनों
काफी अच्छे हैं
प्रहरी १-
हमने नहीं झेला शोक
प्रहरी २-
जाना नहीं कोई दर्द
प्रहरी १-
जैसे हम पहले थे
प्रहरी २-
वैसे ही अब भी हैं।
(धीरे-धीरे परदा गिरता
है)
पंख, पहिये और
पटि्टयाँ
(वृद्ध याचक प्रवेश
करता है। स्टेज पर
मकड़ी के जाले-जैसी
प्रकाश-रेखाएँ और
कुछ-कुछ प्रेतलोक-सा
वातावरण।)
पहले मैं झूठा भविष्य
था, वृद्ध याचक था,
अब मैं प्रेतात्मा हूँ
अश्वत्थामा ने मेरा वध
किया था!
जीवन एक अनवरत प्रवाह
है
और मौत ने मुझे बाँह
पकड़ कर किनारे खींच
लिया है
और मैं तटस्थ रूप से
किनारे पर खड़ा हूँ
और देख रहा हूँ -
कि
यह युग का अन्धा समुद्र
है
चारों ओर से पहाड़ों से
घिरा हुआ
और दरों से
और गुफ़ाओं से
उमड़ते हुए भयानक
तूफ़ान चारों ओर से
उसे मथ रहे हैं
और उस बहाव में मन्थन
है, गति है;
किन्तु नदी की तरह सीधी
नहीं
बल्कि नागलोक के किसी
गह्वर में
सैंकड़ों केंचुल चढ़े,
अन्धे साँप
एक-दूसरे से लिपटे हुए
आगे-पीछे
ऊपर-नीचे
(दूसरे रथ की ध्वनि)
हाँ, दूसरा रथ,
जिसकी गति को मैं तो
क्या कृष्ण भी रोक नहीं
पाए हैं
यह रथ है मेरे बधिक
अश्वत्थामा का
कौए के कटे पंख-सी काली
रक्तरंगी घृणा है भयानक
उसकी
अदम्य!
मोरपंख उससे हारेगा या
जीतेगा?
घृणा के उस नए कालिय
नाग का दमन
अब क्या कृष्ण कर
पाएँगे?
(रथ की ध्वनियाँ तेज़
होती हैं।)
रथ बढ़ते जाते हैं
मैं हूँ अशक्त!
कथा की गति अब मेरे
बाँधे नहीं बँधती है
कृष्ण का रथ पीछे छूटा
जाता है अँधियारे में
वह देखो अश्वत्थामा का
रथ
पाण्डव-शिविर में पहुँच
गया!
आह यह है कौन
विराटकाय दैत्य पुरुष
अन्धकार में
अश्वत्थामा के सम्मुख
काली चट्टानों-सा पड़ा
हुआ
(इस तरह घबरा कर
हथेलियों से आँखें बन्द
कर लेता है, जैसे वह
कुछ बहुत भयानक देख रहा
है। नेपथ्य से भयानक
गर्जन)
(पटाक्षेप)
५५५
गांधारी का शाप
कथा - गायन-
वे शंकर थे
वे रौद्र-वेशधारी विराट
प्रलयंकर थे
जो शिविर-द्वार पर दीखे
अश्वत्थामा को
अनगिनत विष भरे साँप
भुजाओं पर
बाँधे
वे रोम-रोम अगणित
महाप्रलय
साधे
जो शिविर द्वार पर दीखे
अश्वत्थामा को
बोले वे जैसे
प्रलय-मेघ-गर्जन-स्वर
"मुझको पहले जीतो तब
जाओ अंदर!"
युद्ध किया अश्वत्थामा
ने पहले
है और कौन जो
दिव्यास्त्रों को सह ले
शर, शक्ति, प्रास,
नाराच, गदाएँ सारी
लो क्रोधित हो
अश्वत्थामा ने मारी
वे उनके एक रोम में
समा गईं
सब
वह हार मान वन्दना
लगा करने
तब
(अश्वत्थामा का स्वर)
जटा कटाह
सम्भ्रमन्निलिम्प
निर्झरी समा
विलोल वीचि वल्लरी
विराजमान मूर्धनि
धगद्धगद्धगज्ज्वललाट
पट्ट पावके
किशोर चन्द्र शेखरे रति
प्रतिक्षण मम।
वे आशुतोष हैं
हाथ उठाकर बोले
"अश्वत्थामा तुम विजयी
होगे निश्चय
हो चुका पांडवो के
पुण्यों का अब क्षय
मैं कृष्ण-प्रेमवश
अब तक इनकी रक्षा करता
था
मैं विजय दिलाता
इनमें नया पराक्रम भरता
था
पर कर अधर्म-वध
द्वार उन्होंने स्वत:
मृत्यु के खोले"
वे आशुतोष हैं
हाथ उठाकर बोले!
(पर्दा उठने पर
गान्धारी बैठी हुई दीख
पड़ती है और विदुर तथा
संजय इस मुदा्र में
खड़े हैं जैसे
वार्तालाप पहले से चल
रहा हो।)
गान्धारी -
फिर क्या हुआ?
संजय! फिर क्या हुआ?
संजय-
(पाठ करते हुए)
शंकर की दैवी असि लेकर
अश्वत्थामा
जा पहुँचा योद्धा
धृष्टद्युम्न के
सिरहाने
बिजली-सा झपट, खींच कर
शय्या के नीचे
घुटनों से दाब दिया
उसको
पंजों से गला दबोच लिया
आँखों के कोटर से दोनों
साबित गोले
कच्चे आमों की
गुठली-जैसे उछल गए
खाली गड्ढों से काला
लहू उबल पड़ा।
गान्धारी -
अन्धा कर दिया उसको
पहले ही
कितना दयालु है
अश्वत्थामा
संजय-
बड़े कष्ट से जोड़-जोड़
कर शब्द
कहा उसने 'वध करना है
तो अस्त्रों से कर दो'
'तुम योग्य नहीं हो
उसके नरपशु
धृष्टद्युम्न!
तुमने नि:शस्त्र द्रोण
की कायर हत्या की,
यह बदला है!' फिर
चूर-चूर कर दिए
ठोकरों से उसने
मर्मस्थल
विदुर-
बस करो।
गांधारी-
फिर क्या हुआ?
संजय-
कोलाहल सुन जो
अस्त-व्यस्त योद्धा
जागे
आँखें मलते बाहर आए
उनको क्षण भर में गिरा
दिया
तीखे जहरीले तीरों से
शतानीक को कुछ ना मिला
तो पहिये से ही
वार किया।
अश्वत्थामा ने काट दिये
उसके घुटने
सोया था दूर शिखंडी
उसके पास पहुँच कर
माथे के बीचों बीच एक
वाण मारा
जो मस्तक फाड़ चीरता
चन्दन-शय्या को
धरती के अन्दर समा गया।
गांधारी-
फिर क्या हुआ संजय?
विदुर-
हृदय तुम्हारा पत्थर का
है गान्धारी!
गांधारी-
पत्थर की खानों से
मणियाँ निकलती हैं
बाधा मत डालो विदुर
संजय फिर...
विदुर-
संजय नहीं, मुझसे सुनो
कितनी जघन्य वह
प्रतिहिंसा थी
कृपाचार्य, कृतवर्मा,
बाहर थे
जितने बच्चे बूढ़े नौकर
बाहर भागे
वाणों से छेद दिया उनको
कृतवर्मा ने
डरे हुए हाथी चिग्घाड़
कर शिविरों को
चीरते हुए भागे
शय्या पर सोई हुई
स्त्रियाँ जहाँ थीं
वहीं कुचल गईं
उसी समय उन दोनों वीरों
ने
पांडव शिविरों में लगा
दी आग।
गांधारी-
काश कि मैं अपनी आँखों
से
देख पाती यह?
कैसी ज्योति से घिरा
होगा तब अश्वत्थामा!
संजय-
धुआँ, लपट, लोथें, घायल
घोड़े, टूटे रथ
रक्त, मेद, मज्जा,
मुण्ड,
खंडित कबन्धों में
टूटी पसलियों में
विचरण करता था
अश्वत्थामा
सिंहनाद करता हुआ
नर रक्त से वह तलवार
उसके हाथों में
चिपक गयी थी ऐसे
जैसे वह उगी हो
उसी के भुजमूलों से।
गांधारी-
ठहरो
संजय ठहरो
दिव्यदृष्टि से मुझको
दिखला दो एक बार
वीर अश्वत्थामा को।
संजय-
माता वह कुरुप है
भयंकर है
गांधारी-
किन्तु वीर है
उसने वह किया है
जो मेरे सौ पुत्र नहीं
कर पाये
द्रोण नहीं कर पाये!
भीष्म नहीं कर पाये!
संजय-
माता!
व्यास ने मुझको
दिव्यदृष्टि दी थी
गांधारी-
केवल युद्ध की अवधि के
लिए
पता नहीं कब वह
सामर्थ्य मुझसे छिन
जाये!
इसीलिए कहती हूँ।
अन्यायी कृष्ण इसके बाद
अश्वत्थामा को
संजय-
जीवित नहीं छोड़ेंगे
देखने दो मुझको उसे एक
बार।
मैं प्रयास करता हूँ
मेरे सारे पुण्यों का
बल समवेत होकर
दर्शन कराएगा
आप को अश्वत्थामा के
(ध्यान करता है।)
दीवारों हट जाओ
राह में जो बाधाएँ
दृष्टि रोकती हों
वे माया से सिमट जायँ
दूरी मिट जाए
क्षितिज रेखा के पार
दृष्टि से छिपे हैं जो
दृष्य वे निकट आ जायँ।
(पीछे का पर्दा हटने
लगता है, आगे के प्रकाश
बुझने लगते हैं।)
अँधेरा हैं
यह वह स्थल है
जहाँ मरणासन्न दुर्योधन
कल तक पड़ा था
अस्त्र-शस्त्र लिए हुए
कौन ये दोनों योद्धा आए
ये हैं कृपाचार्य,
कृतवर्मा।
(पीछे दूर से वे अँधेरे
में पुकारते हैं,
'महाराज दुर्योधन!'
'महाराज दुर्योधन!')
कृपाचार्य - कृतवर्मा
ज्यातिवाण फेंको
कुछ तिमिर घटे
कृतवर्मा-
(नेपथ्य की ओर देखकर)
वे हैं महाराज
निश्चय ही अर्द्ध-मृत
दुर्योधन को
खींच ले गए हैं हिंसक
पशु उस झाड़ी में
कृपाचार्य-
जीवित हैं अभी
होंठ हिलते से लगते
हैं।
कृतवर्मा-
समझ नहीं पड़ता
है
मुख से बह-बह कर रक्त
काले-काले थक्कों से
जमा हुआ है चारो ओर
हलक भी जमी होगी।
कृपाचार्य-
(रुक-रुक कर, ज़रा ज़ोर
से)
महाराज!
सेनापति अश्वत्थामा ने
ध्वस्त कर दिया है पूरे
पांडव-शिविर को आज
शेष नहीं बचा एक भी
योद्धा।
कृतवर्मा-
महाराज के मुख
पर
आभा संतोष की झलक आई।
कृपाचार्य-
पलकें भी खोल लीं।
कृतवर्मा-
ढूँढ रहे हैं किसे
शायद अश्वत्थामा को?
कृपाचार्य-
महाराज!
अश्वत्थामा अपना
बह्मास्त्र
और मणि लेने गया है
उसे लेकर हम तीनों घोर
वन में चले जायेंगे।
कृतवर्मा -
महाराज की आँखों से बह
रहे अश्रु!
(गान्धारी और संजय पर
प्रकाश पड़ता है।)
संजय-
यह क्या माता!
पट्टी उतारी ही नहीं
तुमने
वह देखो आया
अश्वत्थामा?
गांधारी-
नहीं! नहीं! नहीं!
देख नहीं पाऊँगी
किसी भी तरह मैं
मरणोन्मुख दुर्योधन को
रहने दो संजय
यह पट्टी बँधी है, बँधी
रहने दो
मुझको बताते जाओ क्या
हो रहा है वहाँ?
विदुर-
कुछ भी नहीं दीख पड़
रहा है मुझे।
संजय- अश्वत्थामा आ गया
है
पर शीश झुकाये है
बिलकुल चुप है
(आगे का प्रकाश पुन:
बुझ जाता है।)
कृपाचार्य -
महाराज!
आपका अश्वत्थामा आ गया।
हाथ उठा सकते नहीं
एक बार दृष्टि उठा कर
दे दें आशीष इसे।
अश्वत्थामा-
नहीं स्वामी नहीं!
मैं अब भी अनधिकारी
हूँ।
मैंने प्रतिशोध ले लिया
धृष्टद्युम्न से
पिता की पाप-हत्या का
किन्तु अब भी आपका
प्रतिशोध नहीं ले पाया।
शेष है अभी भी,
सुरक्षित है उत्तरा
जन्म देगी जो पांडव
उत्तराधिकारी को
किन्तु स्वामी
अपना कार्य पूरा करूँगा
मैं।
सूर्यलोक में जब द्रोण
से मिलें आप
कहें...
कृतवर्मा-
किससे कहते हो
अश्वत्थामा, किससे कहते
हो!
महाराज नहीं रहे।
(शोकसूचक संगीत।
कृपाचार्य विह्वल होकर
मुँह ढक लेते हैं। आगे
गान्धारी चीख कर
मूर्च्छित हो जाती है।)
अश्वत्थामा -
किसका चित्कार है यह!
माता गान्धारी
मैं कहता हूँ धैर्य धरो
जैसे तुम्हारी कोख कर
दी है पुत्रहीन कृष्ण
ने
वैसे ही मैं भी उत्तरा
को कर दूँगा पुत्रहीन
जीवित नहीं छोडूँगा
उसको मैं
कृष्ण चाहे सारी
योगमाया से रक्षा करें।
(पीछे का पर्दा गिरने
लगता है।)
गान्धारी -
संजय,
संजय, मेरी पट्टी उतार
दो
देखूँगी मैं अश्वत्थामा
को
वज्र बना दूँगी उसके तन
को
संजय
लो मैंने यह पट्टी उतार
फेंकी
कहाँ है अश्वत्थामा।
(पीछे का पर्दा बिलकुल
बन्द हो जाता है।)
संजय- यह
क्या हुआ माता?
अब तक जो दिव्यदृष्टि
से था मैं देख रहा
सहसा उस पर एक पर्दा-सा
छा गया।
गांधारी-
जल्दी करो
आँसू न गिर आएँ।
संजय-
दीवारों हट जाओ
दीवारों हट जाओ।
माता! माता!
मेरी दिव्यदृष्टि को
क्या हो गया आज?
दीवारों!
दीवारों!
आँखें नहीं खुलती हैं
अन्धों को सत्य दिखाने
में क्या
मुझको भी अन्धा ही होना
है।
विदुर-
संजय
तुमको दीख नहीं पड़ता
क्या
वन, दुर्योधन, या...
संजय-
नहीं विदुर
केवल दीवारें! दीवारें!
दीवारें!
विदुर-
सब समाप्त होने की
जैसे यही एक बेला है।
(गान्धारी जड़ बैठी
है।)
संजय-
व्यास! क्यों मुझको
दिव्यदृष्टि दी थी
थोड़ी-सी अवधि के लिए
आज से कभी भी इस सीमित
दृष्य जगत् से
मैं तृप्ति नहीं पाऊँगा
सीमाएँ तोड़ कर अनन्त
में समाहित होने को
प्यासी मेरी आत्मा
रहेगी सदा!
विदुर-
माता उठो!
छोड़ो हस्तिनापुर को
चल कर समन्तपंचक
अन्तिम संस्कार करें
अपने कुटुम्बियों का
संजय!
संजय- सब
बांधवों से कह दो,
परिजनों से कह दो,
आज ही करेंगे प्रस्थान
युद्धभूमि को।
(जाते हुए)
अठ्ठारह दिनों
का लोमहर्षक संग्राम यह
मुझको दृष्टि देकर और
लेकर चला गया।
(युयुत्सु का प्रवेश)
चलो माता,
युयुत्सु-
महाराज को बुला
लो।
युयुत्सु तुम भी चलो।
जिसने किया हो खुद वध
उसकी अंजलि का तर्पण
स्वीकार किसे होगा भला?
वे मेरे बन्धु हैं
मेरे परिजन
किन्तु सुनो कृष्ण!
आज मैं किस मुँह से
उनका तर्पण करूँगा?
(सब जाते हैं। पीछे का
पर्दा धीरे-धीरे उठता
है।)
कथा-गायन-
वे छोड़ चले कौरव-नगरी
को निर्जन
वे छोड़ चले वह
रत्नजटित सिंहासन
जिसके पीछे था युद्ध
हुआ इतने दिन
सूनी राहें, चौराहे या
घर, आँगन
जिस स्वर्ण-कक्ष में
रहता था दुर्योधन
उसमें निर्भय वनपशु
करते थे विचरण
वे छोड़ चले कौरव नगरी
को निर्जन
करने अपने सौ मृत
पुत्रों का तर्पण
आगे रथ पर कौरव विधवाओं
को ले
है चली जा चुकी
कौरव-सेना सारी
पीछे पैदल आते हैं शीश
झुकाए
धृतराष्ट्र, युयुत्सु,
विदुर, संजय, गान्धारी
(क्रम से धृतराष्ट्र,
युयुत्सु, विदुर, संजय
और गान्धारी धीरे-धीरे
चलते हुर ऊपर आते हैं।
धृतराष्ट्र एक बार
लड़खड़ाते हैं।)
धृतराष्ट्र-
वृद्ध है शरीर
और जर्जर है
चला नहीं जाता है।
विदुर-
संजय तनिक रुको!
(महाराज बैठ जाते हैं।
सब रुक जाते हैं।)
युयुत्सु-
किसके हैं रथ वे
उधर झाड़ी में
छिपे-छिपे...
संजय- वे
तो हैं कृपाचार्य!
विदुर-
इधर कृतवर्मा हैं।
गांधारी-
संजय! क्या अश्वत्थामा!
विदुर-
हाँ माता
वह है अश्वत्थामा।
धृतराष्ट्र-
जाने दो।
गांधारी-
रोको उसे।
संजय-
रुको
ओ रुको अश्वत्थामा
हम हैं संजय
माता गान्धारी, महाराज,
संग है हमारे
विदुर और यु...
धृतराष्ट्र-
संजय!
मत नाम लो युयुत्सु का
क्रोधित अश्वत्थामा
जीवित नहीं छोड़ेगा
मेरा है केवल एक पुत्र
शेष
खोकर उसे कैसे जीवित
रहूँगा?
गांधारी-
और जब पुत्र वह
पराक्रमी यशस्वी है।
संजय चलो
यहीं रहने दो युयुत्सु
को
पुत्र कहीं छिप जाओ
प्राण बचाओ
अब तुम्हीं हो आश्रय
अपने अन्धे पिता वृद्ध
माता के
(संजय के साथ जाती है)
युयुत्सु-
यह सब मैं
सुनूँगा
और जीवित रहूँगा
किन्तु किसके लिए
किन्तु किसके लिए।
धृतराष्ट्र-
मेरे अन्धेपन से तुम थे
उत्पन्न पुत्र!
वही थी तुम्हारी परिधि!
उसका उल्लंघन कर तुमने
जो ज्योतिवृत्त में
रहना चाहा...
विदुर-
क्या वह अपराध था?
(गान्धारी और संजय लौट
आते हैं)
धृतराष्ट्र-
आ गए संजय तुम!
संजय-
अश्वत्थामा तो
बिलकुल बदला हुआ-सा है।
वीर नहीं वह तो जैसे भय
की प्रतिमूर्ति है।
रह-रह काँप उठता है
रथ की वल्गाएँ हाथों से
छूट जाती हैं।
(दूर कहीं शंख-ध्वनि)
गांधारी-
पागल है
कहता है मैं वल्कल धारण
कर
रहूँगा तपोवन में
डरता है कृष्ण से।
(पुन: कई विस्फोट और एक
अलौकिक प्रकाश)
संजय-
पांडवों को लेकर साथ
कृष्ण आ रहे हैं
उसकी खोज में।
गांधारी-
मार नहीं पाएँगे कृष्ण
उसे
मैंने उसे देख कर
वज्र कर दिया है उसके
तन को!
(दूर कहीं विस्फोट)
विदुर-
लगता है
ढूँढ़ लिया प्रभु ने
उसे।
धृतराष्ट्र-
संजय देखो तो
ज़रा।
संजय-
मेरी दिव्यदृष्टि वापस
ले ली है व्यास ने।
युयुत्सु-
यह तो प्रकाश है
अर्जुन के अग्निबाण का!
विदुर-
झुलस-झुलस कर
गिर रही हैं
वनस्पतियाँ।
(बुझे हुए दो अग्नि-वाण
मंच पर गिरते हैं।)
धृतराष्ट्र-
संजय दूर निकल चलो इस
क्षेत्र से!
गांधारी-
किन्तु कृष्ण तुमने
अनिष्ट यदि किया
अश्वत्थामा का...
(सुलगते हुए वाण फिर
गिरते हैं।)
विदुर-
माता चलो
सुरक्षित नहीं है यहाँ
गिरते जाते हैं जलते
वाण यहाँ।
(जाते हैं। कुछ क्षण
स्टेज खाली रहता है।
नेपथ्य में शंखनाद।
लगातार विस्फोट। तीव्र
प्रकाश।)
(अकस्मात् दौड़ता हुआ
अश्वत्थामा आता है।
उसके गले में वाण चुभा
हुआ है। खींच कर वाण
निकालता है और रक्त बह
निकलता है। इतने में
दूसरा वाण आता है जिसे
वह बचा जाता है और फिर
तन कर खड़ा हो जाता है।
क्रोध से आरक्त मुख।)
अश्वत्थामा -
रक्षा करो
अपनी अब तुम अर्जुन!
मैंने तो सोचा था -
वल्कल धारण कर रहूँगा
तपोवन में
पूरे पांडव को
निर्मूल किए बिना शायद
युद्धलिप्सा
नहीं शान्त होगी कृष्ण
की।
अच्छा तो यह लो!
अर्जुन स्मरण करो अपने
विगत कर्म
इसके प्रभाव को
एक क्या करोड़ कृष्ण
मिटा नहीं पाएँगे।
सुनो तुम सब नभ के
देवगण
अपने-अपने
विमानों पर आरूढ़
देख रहे हो जो इस युद्ध
को
साक्षी रहोगे तुम
विवश किया है मुझे
अर्जुन ने
यह लो
यह है बह्मास्त्र!
(कोई काल्पनिक वस्तु
फेंकता है।
ज्वालामुखियों की-सी
गड़गड़ाहट। तेज
महताबी-सा प्रकाश, फिर
अँधेरा।)
व्यास -
(आकाशवाणी)
यह क्या किया?
अश्वत्थामा! नराधम!
यह क्या किया!
अश्वत्थामा-
कौन दे रहा है
अपनी
मृत्यु को निमंत्रण
मेरे प्रतिशोध में बाधक
बन कर
व्यास-
मैं हूँ व्यास।
ज्ञात क्या तुम्हें है
परिणाम इस ब्रह्मास्त्र
का?
यदि यह लक्ष्य सिद्ध
हुआ ओ नरपशु!
तो आगे आने वाली सदियों
तक
पृथ्वी पर रसमय वनस्पति
नहीं होगी
शिशु होंगे पैदा
विकलांग और कुष्ठग्रस्त
सारी मनुष्य जाति बौनी
हो जायेगी
जो कुछ भी ज्ञान संचित
किया है मनुष्य ने
सतयुग में, त्रेता में,
द्वापर में
सदा-सदा के लिए होगा
विलीन वह
गेहूँ की बालों में
सर्प फुफकारेंगे
नदियों में बह-बहा कर
आयेगी पिघली आग।
अश्वत्थामा -
भस्म हो जाने दो
आने दो प्रलय व्यास!
देखूँ मैं रक्षण-शक्ति
कृष्ण की?
व्यास -
तो देख उधर
कृष्ण के कहने से पहले
ही
अर्जुन ने छोड़ दिया था
नभ में अपना
ब्रह्मास्त्र
लेकिन नराधम
ये दोनों ब्रह्मास्त्र
अभी नभ में टकराएँगे
सूरज बुझ जाएगा।
धरा बंजर हो जाएगी।
(फिर गड़गड़ाहट। तेज
प्रकाश और फिर अँधेरा)
अश्वत्थामा -
मैं क्या करूँ
मुझको विवश किया अर्जुन
ने
मैं था अकेला और
अन्यायी कृष्ण पांडवों
के सहित
मेरा वध करने को आतुर
थे।
(भयानक आर्तनाद)
व्यास -
अर्जुन सुनो
मैं हूँ व्यास
तुम वापस ले लो
ब्रह्मास्त्र को
अश्वत्थामा! अपनी
कायरता से तू
मत ध्वस्त कर मनुजता को
वापस ले अपना
ब्रह्मास्त्र और मणि
देकर
वन में चला जा...
अश्वत्थामा -
व्यास ! मैं
अशक्त हूँ,
मुझको है ज्ञात रीति
केवल आक्रमण की
पीछे हटना मुझको या
मेरे अस्त्रों को
मेरे पिता ने सिखाया
नहीं।
व्यास-
सूरज बुझ जाएगा।
धरा बंजर हो जाएगी।
अश्वत्थामा -
अच्छा तो सुन लो व्यास
सुन लो कृष्ण -
यह अचूक अस्त्र
अश्वत्थामा का
निश्चित गिरे जाकर
उत्तरा के गर्भ पर।
वापस नहीं होगा।
भयानक विस्फोट
व्यास -
तुम पशु हो!
तुम पशु हो!
तुम पशु हो!
(अश्वत्थामा विकट
अट्टाहास करता है।)
अश्वत्थामा -
था मैं नहीं
मुझको युधिष्ठिर ने बना
दिया।
(पर्दा गिरकर आगे का
दृष्य। नेपथ्य में
पाण्डव-वधुओं का
क्रन्दन सुन पड़ता है।
गान्धारी और संजय आते
हैं।)
गान्धारी -
चलते चलो संजय!
क्रन्दना यह कैसा है?
सुनते हो?
संजय -
अश्वत्थामा का
ब्रह्मास्त्र जा गिरा
है
उत्तरा के गर्भ पर।
गांधारी-
करेगा
वह अपना प्रण पूरा
करेगा।
संजय-
(रुककर)
माता, किन्तु कृष्ण उसे
क्षमा नहीं करेंगे।
गांधारी-
चलते चलते संजय
उसका वध नहीं कर सकेंगे
कृष्ण
चक्र यदि कृष्ण का
खण्ड-खण्ड मुझको
कर भी दे
तो,
मैं तो अभी जाऊँगी वहाँ
जहाँ गहन मृत्युनिद्रा
में सोया है दुर्योधन
चलते चलो संजय!
(जाते हैं। धृतराष्ट्र
और युयुत्सु का
प्रवेश।)
धृतराष्ट्र -
वत्स, तुम मेरी आयु
लेकर भी
जीवित रहो
अश्वत्थामा का
ब्रहृमास्त्र
यदि गिरा है उत्तरा पर
तो कौन जाने एक दिन
युधिष्ठिर
सब राजपाट तुमको ही
सौंप दें!
युयुत्सु -
(कटु हँसी हँसकर)
और इस तरह
अश्वत्थामा की पशुता
मेरा खोया हुआ भाग्य
फिर लौटा लाए!
नहीं पिता नहीं,
इतना ही दंशन क्या काफी
नहीं हैं इस अभागे को।
(पाण्डवों की जयध्वनि
सुन पड़ती हैं; विदुर
आते हैं)
धृतराष्ट -
यह कैसी जयध्वनि?
विदुर-
महाराज!
रक्षा कर ली उत्तरा की
मेरे प्रभु ने!
धृतराष्ट्र-
(एक क्षण को स्तब्ध
होकर)
कैसे विदुर!
विदुर-
बोले वे
यदि यह ब्रह्मास्त्र
गिरता है तो गिरे
लेकिन जो मुर्दा शिशु
होगा उत्पन्न
उसे जीवित करूँगा मैं
देकर अपना जीवन।
धृतराष्ट्र-
अश्वत्थामा को
क्या छोड़ दिया कृष्ण
ने?
विदुर-
छोड़ दिया!
केवल भ्रूण-हत्या का
शाप
उसे दिया और
उससे मणि ले ली...
मणि देकर लेकर शाप
खिन्न-मन अश्वत्थामा
नतमस्तक चला गया।
युयुत्सु-
(जिस पर कोई भावनात्मक
प्रतिक्रिया लक्षित
नहीं होती)
मुझको आशंका है
माता गान्धारी
सुन कर पराजय अपने
अश्वत्थामा की
जाने क्या कर डालें!
धृतराष्ट्र-
चलो विदुर
आगे गई हैं वे!
मैं भी धीरे-धीरे आता
हूँ!
(पहले तेज़ी से विदुर,
फिर धृतराष्ट्र और
युयुत्सु उधर जाते हैं
जिधर गान्धारी गई हैं।
पर्दा खुलकर अन्दर का
दृष्य। संजय, गान्धारी
और विदुर।)
संजय -
यह वह स्थल है
यहीं कहीं हुए थे
धराशायी महाराज
दुर्योधन!
यह है स्वर्ण
शिरस्त्राण
यह है गदा उनकी
यह है कवच उनका।
(गान्धारी पट्टी उतार
देती है। एक-एक वस्तु
को टटोल-टटोलकर देखती
हैं। कवच पर हाथ फेरते
हुए रो पड़ती हैं।)
विदुर -
माता धैर्य धारण करें!
कवच यह मिथ्या था
केवल स्वयम् किया हुआ
मार्यादित आचरण कवच है
जो व्यक्ति को बचाता है
माता
(सहसा गान्धारी नेपथ्य
की ओर देखती है।)
गान्धारी -
कौन है वह
झाड़ी के पास मौन बैठा
हुआ
कोई जीवित व्यक्ति?
विदुर-
माता!
उधर मत देखें।
गांधारी-
लगता है जैसे
अश्वत्थामा
संजय-
नहीं नहीं
इतना कुरुप
अंग-अंग गला कोड़ से
रोगी कुत्तों-सा
दुर्गन्धयुक्त।
गांधारी-
लौटा जा रहा है!
वह कौन है विदुर!
रोको!
विदुर-
माता उसे जाने दें
वह अश्वत्थामा है
दण्ड उसे दिया
भ्रूण-हत्या का कृष्ण
ने
शाप दिया उसको
कि जीवित रहेगा वह
लेकिन हमेशा जख़्म
ताज़ा रहेगा
प्रभु-चक्र उसके तन पर
रक्त सना घूमेगा
गहन वनों में
युग-युगान्तर तक
अंगों पर फोड़े लिए
गले हुए जख़्मों से
चिपटी हुई पटि्टयाँ
पीप, थूक, कफ से सना
जीवित रहेगा वह
मरने नहीं देंगे प्रभु!
लेकिन अगणित रौरव की
पीड़ा जगती रहेगी
रोम-रोम में।
गान्धारी-
संजय उसे रोको!
लोहा मैं लूँगी आज
कृष्ण से उसके लिए।
संजय-
माता, वह चला गया
आया था शायद विदा लेने
दुर्योधन के अन्तिम
अस्थि-शेषों से।
गांधारी-
अस्थि-शेष?
तो क्या वह पड़ा है
कंकाल मेरे पुत्र का?
विदुर-
धैर्य धरो माता!
गांधारी-
(हृदय-विदारक स्वर में)
तो, वह पड़ा है कंकाल
मेरे पुत्र का
किया है यह सब कुछ
कृष्ण
तुमने किया है यह
सुनो!
आज तुम भी सुनो
मैं तपस्विनी गान्धारी
अपने सारे जीवन के
पुण्यों का
अपने सारे पिछले जन्मों
के पुण्यों का
बल लेकर कहती हूँ
कृष्ण सुनो!
तुम यदि चाहते तो रुक
सकता था युद्ध यह
मैंने प्रसव नहीं किया
था कंकाल यह
इंगित पर तुम्हारे ही
भीम ने अधर्म किया
क्यों नहीं तुमने वह
शाप दिया भीम को
जो तुमने दिया निरपराध
अश्वत्थामा को
तुमने किया है प्रभुता
का दुरुपयोग
यदि मेरी सेवा में बल
है
संचित तप में धर्म हैं
तो सुनो कृष्ण!
प्रभु हो या परात्पर हो
कुछ भी हो
सारा तुम्हारा वंश
इसी तरह पागल कुत्तों
की तरह
एक-दूसरे को परस्पर
फाड़ खाएगा
तुम खुद उनका विनाश
करके कई वर्षों बाद
किसी घने जंगल में
साधारण व्याध के हाथों
मारे जाओगे
प्रभु हो
पर मारे जाओगे पशुओं की
तरह।
(वंशी-ध्वनि। कृष्ण की
छाया)
कृष्ण-ध्वनि -
माता!
प्रभु हूँ या परात्पर
पर पुत्र हूँ तुम्हारा,
तुम माता हो!
मैंने अर्जुन से कहा -
सारे तुम्हारे कर्मों
का पाप-पुण्य, योगक्षेम
मैं वहन करूँगा अपने
कंधों पर
अठ्ठारह दिनों के इस
भीषण संग्राम में
कोई नहीं केवल मैं ही
मरा हूँ करोड़ों बार
जितनी बार जो भी सैनिक
भूमिशायी हुआ
कोई नहीं था
वह मैं ही था
गिरता था घायल होकर जो
रणभूमि में।
अश्वत्थामा के अंगों से
रक्त, पीप, स्वेद बन कर
बहूँगा
मैं ही युग-युगान्तर तक
जीवन हूँ मैं
तो मृत्यु भी तो मैं ही
हूँ माँ।
शाप यह तुम्हारा
स्वीकार है।
गान्धारी -
यह क्या किया तुमने
(फूट-फूटकर रोने लगती
है)
रोई नहीं मैं
अपने
सौ पुत्रों के लिए
लेकिन कृष्ण तुम पर
मेरी ममता अगाध है।
कर देते शाप यह मेरा
तुम अस्वीकार
तो क्या मुझे दु:ख
होता?
मैं थी निराश, मैं कटु
थी,
पुत्रहीना थी।
कृष्ण-ध्वनि -
ऐसा मत कहो
माता!
जब तक मैं जीवित हूँ
पुत्रहीना नहीं हो तुम।
प्रभु हूँ या परात्पर
पर पुत्र हूँ तुम्हारा
तुम माता हो
गान्धारी -
रोते हुए
मैंने क्या किया विदुर?
मैंने क्या किया?
कथा-गायन-
स्वीकार किया यह शाप
कृष्ण ने जिस क्षण से
उस क्षण से ज्योति
सितारों की पड़ गई मन्द
युग-युग की संचित
मर्यादा निष्प्राण हुई
श्रीहीन हो गए कवियों
के सब वर्ण-छन्द
यह शाप सुना सबने पर भय
के मारे
माता गान्धारी से कुछ
नहीं कहा
पर युग सन्ध्या की
कलुषित छाया-जैसा
यह शाप सभी के मन पर
टँगा रहा।
(पटक्षेप)
६६६
विजय : एक क्रमिक
आत्महत्या
कथा-गायन-
दिन,हफ्ते, मास, बरस
बीते : ब्रहृमास्त्रों
से झुलसी धरती
यद्यपि हो आई हरी-भरी
अभिषेक युधिष्ठिर का
सम्पन्न हुआ, फिर से पर
पा न सकी
खोयी शोभा कौरव-नगरी।
सब विजयी थे लेकिन सब
थे विश्वास-ध्वस्त
थे सूत्रधार खुद कृष्ण
किन्तु थे शापग्रस्त
इस तरह पांडव-राज्य हुआ
आरम्भ पुण्यहत,
अस्त-व्यस्त
थे भीम बुद्धि से मन्द,
प्रकृति से अभिमानी
अर्जुन थे असमय वृद्ध,
नकुल थे अज्ञानी
सहदेव अर्द्ध-विकसित थे
शैशव से अपने
थे एक युधिष्ठिर
जिनके चिन्तित माथे पर
थे लदे हुए भावी विकृत
युग के सपने
थे एक वही जो समझे रहे
थे क्या होगा
जब शापग्रस्त प्रभु का
होगा देहावसान
जो युग हम सब ने रण में
मिल कर बोया है
जब वह अंकुर देगा, ढँक
लेगा सकल ज्ञान
सीढ़ी पर बैठे घुटनों
पर माथा रक्खे
अक्सर डूबे रहते थे
निष्फल चिन्तन में
देखा करते थे सूनी-सूनी
आँखों से
बाहर फैले-फैले
निस्तब्ध तिमिर घन में
(पर्दा उठता है। दोनों
बूढ़े प्रहरी पीछे खड़े
हैं; आगे युधिष्ठिर)
युधिष्ठिर -
ऐसे भयानक महायुद्ध को
अर्द्धसत्य, रक्तपात,
हिंसा से जीत कर
अपने को बिलकुल हारा
हुआ अनुभव करना
यह भी यातना ही है
जिनके लिए युद्ध किया
है
उनको यह पाना कि वे सब
कुटुम्बी अज्ञानी हैं,
जड़ हैं, दुर्विनीति
हैं, या जर्जर हैं,
सिंहासन प्राप्त हुआ है
जो
यह माना कि उसके पीछे
अन्धेपन की
अटल परम्परा है;
जो हैं प्रजाएँ
यह माना कि वे पिछले
शासन के
विकृत साँचे में हैं
ढली हुई
और,
खिड़की के बाहर गहरे
अँधियारे में
किसी ऐसे भावी अमंगल
युग की आहट पाना
जिसकी कल्पना ही थर्रा
देती हो,
फिर भी
जीवित रहना, माथे पर
मणि धारण करना
वधिक अश्वत्थामा का,
यातना यह वह है
बन्धु दुर्योधन।
जिसको देखते हुए तुम
कितने भाग्यशाली थे
कि पहले ही चले गए।
बाकी बचा मैं
देखने को अँधियारे में
निर्निमेष भावी अमंगल
युग
किसको बताऊँ किन्तु,
मेरे ये कुटुम्बी
अज्ञानी हैं, दुर्विनीत
हैं,
या जर्जर हैं,
(नेपथ्य में गर्जन)
शायद फिर भीम ने
किसी का अपमान किया
(भीम का अट्टाहास)
यह है मेरा
हासोन्मुख कुटुम्ब,
जिसे कुछ ही वर्षों में
बाहर घिरा हुआ
अँधेरा निगल जाएगा,
लेकिन जो तन्मय हैं
भीम के आमानुषिक
विनोदों में।
(अन्दर से सब का कई बार
समवेत अट्टहास। विदुर
तथा कृपाचार्य का
प्रवेश)
विदुर-
महाराज!
अब हो चला है असहनीय
कैसे रुकेगा
युधिष्ठिर-
विद्रूप यह भीम का?
अब क्या हुआ विदुर?
विदुर-
वही,
प्रतिदिन की भाँति
आज भी युयुत्सु का
अपमान किया भीम ने।
कृपाचार्य-
और सब ने उसके
गूँगेपन का आनन्द लिया।
युधिष्ठिर-
पता नहीं क्या हो क्या
है
युयुत्सु की वाणी को।
विदुर-
अब तो वह बिलकुल ही
गूँगा है।
पिछले कई वर्षों से
उसको घृणा ही मिली अपने
परिवार से
प्रजाओं से
उसकी थी अटल आस्था
कृष्ण पर
कृपाचार्य-
पर वे शापग्रस्त हुए।
आश्रित था आप का
पर भीम की कटूक्तियों
से मर्माहत होकर
जब अन्धे धृतराष्ट्र और
गान्धारी
वन में चले गए
युधिष्ठिर-
उस दिन से वाणी
उसकी बिलकुल ही जाती
रही।
भोगी है उसने ही यातना
अपने ही बन्धुजनों के
विरुद्ध
जीवन का दाँव लगा देना,
पर अन्त में विश्वास
टूट जाना,
लांछन पाना
और वह भी न कर पाना
किया जो नरपशु
अश्वत्थामा ने।
कृपाचार्य-
(पुन: भीम का गर्जन)
महाराज!
चल कर अब आप ही
आश्वासन दें युयुत्सु
को।
(युधिष्ठिर और उनके साथ
विदुर तथा कृपाचार्य
अन्दर जाते हैं। प्रहरी
आगे आकर वार्तालाप करने
लगते हैं)
प्रहरी १
- कोई विक्षिप्त
हुआ
प्रहरी २-
कोई शापग्रस्त हुआ
प्रहरी १-
हम जैसे पहले थे
प्रहरी २-
वैसे ही अब भी हैं
प्रहरी १-
शासक बदले
प्रहरी २-
स्थितियाँ बिलकुल वैसी
हैं
प्रहरी १-
इससे तो पहले के ही
शासक अच्छे थे
अन्धे थे...
लेकिन वे शासन तो करते
थे
ये तो संतज्ञानी हैं
प्रहरी २-
शासन करेंगे क्या?
प्रहरी १
- जानते नहीं हैं ये
प्रकृति प्रजाओं की
प्रहरी २-
ज्ञान और मर्यादा
प्रहरी १-
उनका करें क्या हम?
प्रहरी २-
उनको क्या पीसेंगे?
प्रहरी १-
या उनको खायेंगे?
या उनको ओढ़ेंगे?
या उन्हें बिछायेंगे?
प्रहरी २-
हमको तो अन्न मिले
प्रहरी १-
निश्चित आदेश मिले
एक सुदृढ़ नायक मिले
अन्धे आदेश मिलें
प्रहरी २-
नाम उन्हें चाहे हम
युद्ध दें या शान्ति
दें।
प्रहरी १-
जानते नहीं ये प्रकृति
प्रजाओं की।
(अन्दर से युयुत्सु को
आता देखकर प्रहरी चुप
हो जाता है और पहले की
तरह जाकर विंग्ज में
खड़े हो जाते हैं।
युयुत्सु
अर्द्ध-विक्षिप्त की-सी
करूणोत्पादक चेष्टाएँ
करता हुआ दूसरी ओर निकल
जाता है। क्षण भर बाद
विदुर और कृपाचार्य
प्रवेश करते हैं।)
विदुर -
तुमने क्या देखा
युयुत्सु को?
(प्रहरी नेपथ्य की ओर
संकेत करते हैं।)
कृपाचार्य-
वह भी अभागा है
भटक रहा है राजमार्ग
पर।
विदुर-
महलों में उसका अपमान
क्या कम होता है
जाता है बाहर
और अपमानित होने
प्रजाओं से।
कृपाचार्य-
वह देखो!
भिखमंगे, लंगड़े, लूले,
गन्दे बच्चों की
एक बड़ी भीड़ उस पर
ताने कसती
पीछे-पीछे चली आती हैं।
विदुर-
आह, वह पत्थर खींच मारा
किसी ने।
(चिंतित हो उसी ओर जाते
हैं।)
कृपाचार्य-
युधिष्ठिर के राज्य में
नियति है यह युयुत्सु
की
जिसने लिया था पक्ष
धर्म का।
(विदुर युयुत्सु को
लेकर आते हैं। मुँह से
रक्त बह रहा है। विदुर
उत्तरीय से रक्त पोंछते
हैं। पीछे-पीछे वही
गूँगा सैनिक भिखमंगा
है। वह युयुत्सु को
पत्थर फेंक कर मारता है
और वीभत्स हँसी हँसता
है।)
विदुर -
प्रहरी इस भिक्षुक को
किसने यहाँ आने दिया
युयुत्सु! तुम मेरे साथ
चलो
(भिखमंगा पाशविक
इंगितों से कहता है -
इसने मेरे पाँव तोड़
दिए, मैं प्रतिशोध
क्यों न लूँ?)
कृपाचार्य -
पाँव केवल तोड़े
तुम्हारे
युयुत्सु ने,
किंतु आज तुमको मैं
जीवित नहीं छोडूँगा।
(प्रहरी के हाथ से भाला
लेकर दौड़ता है। गूँगा
भागता है। युयुत्सु आगे
आकर कृपाचार्य को रोकता
है और भाला खुद ले लेता
है और सीने पर भाला रख
कर दबाते हुए नेपथ्य
में चला जाता है।
नेपथ्य से भयंकर
चीत्कार। विदुर दौड़ कर
अन्दर जाते हैं।)
विदुर-
(नेपथ्य से)
महाराज
कर ली आत्महत्या
युयुत्सु ने
दौड़ो कृपाचार्य।
(कृपाचार्य जाते हैं।
प्रहरी पुन: आगे आते
हैं)
प्रहरी १-
युद्ध हो या शांति हो
प्रहरी २-
रक्तपात होता है
प्रहरी १-
अस्त्र रहेंगे तो
प्रहरी २-
उपयोग में आएँगे ही
प्रहरी १-
अब तक वे अस्त्र
प्रहरी २-
दूसरों के लिए उठते थे
प्रहरी १-
अब वे अपने ही विरुद्ध
काम आएँगे
प्रहरी २-
यह जो हमारे अस्त्र अब
तक निरर्थक थे
प्रहरी १-
कम से कम उनका
प्रहरी २-
आज कुछ तो उपयोग हुआ
(अन्दर समवेत अट्टाहास।
कृपाचार्य आते हैं।)
कृपाचार्य-
इस पर भी हँसते हैं
वे सब अज्ञानी, मूढ़,
दुर्विनीत, अहंग्रस्त
भाई युधिष्ठिर के
रक्त ये युयुत्सु के
लिख जो दिया है उन
हमलों की भूमि पर
समझ नहीं रहे हैं उसे
ये आज!
यह आत्महत्या होगी
प्रतिध्वनित
इस पूरी संस्कृति में
दर्शन में, धर्म में,
कलाओं में
शासन-व्यवस्था में
आत्मघात होगा बस अंतिम
लक्ष्य मानव का।
(विदुर जाते हैं)
विदुर -
मुक्ति मिल जाती है सब
को कभी न कभी
वह जो बन्धुघाती है
हत्या जो करता है माता
की, प्रिय की
बालक की, स्त्री की,
किन्तु आत्माघाती
भटकता है अँधियारे
लोकों में
सदा-सदा के लिए बन कर
प्रेत।
कृपाचार्य -
परिणति यही थी युयुत्सु
की
विदुर! मैं युधिष्ठिर
के ऊँचे महलों में
आज सहसा सुन रहा हूँ
पगध्वनि अमंगल की
अब तक मैं रह कर यहाँ
शिक्षा देता रहा
परीक्षित को अस्त्रों
की
लेकिन अब यह जो
आत्मघाती, नपुंसक,
हासोन्मुख प्रवृत्ति
उभर आई है
अब तो मैं छोड़ दूँ
हस्तिनापुर
इसी में कुशल है विदुर!
आत्मघात उड़ कर लगता है
घातक रोगों-सा।
विदुर-
किन्तु विप्र
कृपाचार्य-
नहीं! नहीं!
योद्धा रहा हूँ मैं
आत्मघात वाली इस
युधिष्ठिर की संस्कृति
में
मैं नहीं रह पाऊँगा।
(जाता है)
विदुर-
राज्य में युधिष्ठिर के
होंगे आत्मघात
विप्र लेंगे निर्वासन
कैसी है शान्ति यह
प्रभु जो तुमने दी है?
होगा क्या वन में
सुनेंगे धृतराष्ट्र जब
यह मरण युयुत्सु का?
युधिष्ठिर-
(प्रवेश कर)
प्राण है अभी भी शेष
कुछ-कुछ युयुत्सु में।
विदुर-
यदि जीवित है
तो आप उसे भेज दें
मेरी ही कुटिया में
रक्षा करूँगा, परिचर्या
करूँगा
उसने जो भोगा है कृष्ण
के लिए अब तक
उसका प्रतिदान जहाँ तक
मैं दे पाऊँगा
दूँगा
(विदुर और युधिष्ठिर
जाते हैं। प्रकाश धीमा
होता है)
प्रहरी १-
कैसा यह असमय
अँधियारा है।
प्रहरी २-
धूममेघ घिरते जाते हैं
वन-खण्डों से
प्रहरी १-
लगता है लगी हुई है
भीषण दावाग्नि।
(बातें करते-करते
प्रहरी नेपथ्य में चले
जाते हैं।)
(अन्दर का पर्दा उठता
है। जलते हुए वन में
धृतराष्ट्र और संजय)
धृतराष्ट्र-
जाने दो संजय
अब बचा नहीं पाओगे मुझे
आज
जर्जर हूँ, आग से कहाँ
तक मैं भागूँगा?
संजय-
थोड़ी ही दूर पर निरापद
स्थान है
महाराज चलते चलें!
(पीछे मुड़कर)
आह माता
गान्धारी
वहीं बैठ गईं।
माता, ओ माता।
धृतराष्ट्र-
संजय
अब सब प्रयत्न व्यर्थ
है!
छोड़ दो तुम मुझे यहीं,
जीवन भर में
अन्धेपन के अँधियारे
में भटका हूँ
अग्नि है नहीं, यह है
ज्योतिवृत्त
देखकर नहीं यह सत्य
ग्रहण कर सका तो आज
मैं अपनी वृद्ध
अस्थियों पर
सत्य धारण करूँगा
अग्निमाला-सा!
संजय- आग
बढ़ती आती है।
आह माता गान्धारी घिर
गयीं लपटों से
किसको बचाऊँ मैं
हाय असमर्थ हूँ!
गांधारी-
(अधजली हुई आती है।)
संजय तुम जाओ
यह मेरा ही शाप है
दिया था जो मैंने
श्रीकृष्ण को
अग्नि, आत्महत्या,
अधर्म, गृहकलह में जो
शतधा हो बिखर गया है
नगरों पर, वन में
संजय!
उसे कहना
अपने इस शाप की
प्रथम समिधा मैं ही
हूँ।
(नेपथ्य से पुकार
'गान्धारी।')
उनसे कहना
अपने इस शाप की
प्रथम समिधा मैं ही
हूँ।
(नेपथ्य से पुकार
'गान्धारी।')
धृतराष्ट्र -
आह!
छूट गई है वृद्ध कुन्ती
वन में,
लौटो गान्धारी।
संजय-
महाराज!
महाराज!
भीषण दावाग्नि अपनी
अगणित जिह्वाओं से
निकल गई होगी माँ
कुन्ती को
महाराज
स्थल यह निरापद है
मत जायें।
गांधारी-
संजय!
जो जीवन भर भटके
अँधियारे में
उनको मरने दो
प्राणान्तक प्रकाश में
(धृतराष्ट्र को लेकर
गान्धारी जाती है)
संजय-
देखकर
आह!
पूरे का पूरा धधकता हुआ
बरगद
दोनों पर टूट गिरा
फिर भी बचा हूँ शेष
फिर भी बचा हूँ शेष
लेकिन क्यों?
लेकिन क्यों?
मुझसा निरर्थक और होगा
कौन?
आ...ह!
(सहसा एक डाल उसके पाँव
पर टूट कर गिरती है। यह
पाँव पकड़ कर बैठ जाता
है।)
(पीछे का पर्दा गिरता
है।)
कथा-गायन-
यों गए बीतते
दिन पांडव शासन के
नित और अशान्त
युधिष्ठिर होते जाते
वह विजय और खोखली
निकलती आती
विश्वास सभी घन तम में
खोते जाते
(विंग से निकल कर
प्रहरी खड़े हो जाते
हैं। एक से भाले पर
युधिष्ठिर का किरीट है)
प्रहरी १-
यह है किरीट
चक्रवर्ती सम्राट का!
प्रहरी २-
धारण करो इसको
छोड़ दिया है
प्रहरी १-
जब से
अशकुन होने लगे हैं
हस्तिनापुर में।
प्रहरी २-
नीचे रख दो इसको
आते हैं महाराज!
(युधिष्ठिर और विदुर
आते हैं)
विदुर-
महाराज निश्चय यह
अशकुन सम्बन्धित है
युधिष्ठिर -
कृष्ण की मृत्यु से।
मुझको मालूम है।
दूतों ने आकर यह
सूचना मुझे दी है
कलह बढ़ गया है
यादव-कुल में!
विदुर-
अर्जुन को आप शीघ्र
भेजे द्वारकापुरी
युधिष्ठिर-
विदुर
मैं करूँगा क्या?
माता कुन्ती, गान्धारी
और
महाराज हो गए भस्म उस
दावाग्नि में
तर्पण करने के बाद
घाव खुल गए फिर
युयुत्सु के
और इतने दिनों बाद
उसका वह आत्मघात
फलीभूत होकर रहा
प्राण नहीं उसके बचा
सका
अब भी मैं जीवित रहूँगा
क्या
देखने को प्रभु का
अवसान
इन आँखों से?
नहीं! नहीं!
जाने दो
मुझको गल जाने दो
हिमालय के शिखरों पर।
विदुर-
महाराज!
वह भी आत्मघात है
शिखरों की ऊँचाई
कर्म की नीचता का
परिहार नहीं करती हैं।
वह भी आत्मघात है।
युधिष्ठिर-
और विजय क्या
है?
एक लम्बा और धीमा
और तिल-तिल कर फलीभूत
होने वाला आत्मघात
और पथ कोई भी शेष
नहीं अब मेरे आगे।
(बातें करते-करते दूसरी
ओर चले जाते हैं।
प्रहरी आगे आते हैं।)
प्रहरी १-
अशकुन तो निश्चय ही
होते हैं रोज़-रोज़।
प्रहरी २-
आँधी से कल
कंकड़-पत्थर की वर्षा
हुई।
प्रहरी १-
सूरज में मुण्डहीन
काले-काले कबन्ध हिलते
नज़र आते हैं।
प्रहरी २-
जिनको ये सब के सब
अपना प्रभु कहते थे
सुनते हैं
उनका अवसान
अब निकट ही है।
प्रहरी १-
कहते हैं
द्वारिका में
आधी रात काला
और पीला वेष
धारण किए
काल घूमा करता है।
प्रहरी २-
बड़े-बड़े धनुर्धारी
वाण बरसाते हैं
पर अन्धड़ बन कर
वह सहसा उड़ जाता है।
प्रहरी १-
जिनको ये सबके सब
अपना प्रभु कहते हैं
प्रहरी २-
जो अपने कन्धों पर
खेने वाले थे
इनका सब योगक्षेम
प्रहरी १-
वे ही इन सबको
पथभ्रष्ट और
लक्ष्यभ्रष्ट
नीचे ही त्याग कर
प्रहरी २-
करते हैं तैयारी
अपने लोक जाने की
प्रहरी १-
बेचारे ये सब के सब
अब करेंगे क्या?
प्रहरी २-
इन सब से तो हम दोनों
काफी अच्छे हैं
प्रहरी १-
हमने नहीं झेला शोक
प्रहरी २-
जाना नहीं कोई दर्द
प्रहरी १-
जैसे हम पहले थे
प्रहरी २-
वैसे ही अब भी हैं।
(धीरे-धीरे परदा गिरता
है)
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