कौरव नगरी
|
(तीन बार
तूर्यनाद के उपरान्त कथा-गायन)
|
टुकड़े-टुकड़े हो बिखर चुकी
मर्यादा
उसको दोनों ही पक्षों ने तोड़ा है
पाण्डव ने कुछ कम कौरव ने कुछ ज़्यादा
यह रक्तपात अब कब समाप्त होना है
यह अजब युद्ध है नहीं किसी की भी जय
दोनों पक्षों को खोना ही खोना है
अन्धों से शोभित था युग का सिंहासन
दोनों ही पक्षों में विवेक ही हारा
दोनों ही पक्षों में जीता अन्धापन
भय का अन्धापन, ममता का अन्धापन
अधिकारों का अन्धापन जीत गया
जो कुछ सुन्दर था, शुभ था, कोमलतम था
वह हार गया द्वापर युग बीत गया
(पर्दा उठने लगता है)
यह महायुद्ध के अंतिम दिन की संध्या
है छाई चारों ओर उदासी गहरी
कौरव के महलों का सूना गलियारा
हैं घूम रहे केवल दो बूढ़े प्रहरी
|
(पर्दा उठाने पर
स्टेज खाली है। दाई और बाई ओर बरछे और ढाल लिए दो प्रहरी हैं
जो वार्तालाप करते हुए यन्त्र-परिचालित से स्टेज के आर-पार
चलते हैं।)
|
प्रहरी-१
|
थके हुए हैं हम,
पर घूम-घूम पहरा देते हैं
इस सूने गलियारे में
|
प्रहरी- २
|
सूने गलियारे में
जिसके इन रत्न-जटित फ़र्शों पर
कौरव-वधुएँ
मंथर-मंथर गति से
सुरभित पवन-तरंगों-सी चलती थीं
आज वे विधवा हैं,
|
प्रहरी-१
|
थके हुए हैं हम,
इसलिए नही कि
कहीं युद्धों में हमने भी
बाहुबल दिखाया है
प्रहरी थे हम केवल
सत्रह दिनों के लोमहर्षक संग्राम में
भाले हमारे ये,
ढालें हमारी ये,
निरर्थक पड़ी रहीं
अंगों पर बोझ बनी
रक्षक थे हम केवल
लेकिन रक्षणीय कुछ भी नहीं था यहाँ
|
प्रहरी- २
|
रक्षणीय कुछ भी नहीं था
यहाँ
संस्कृति थी यह एक बूढ़े और अन्धे की
जिसकी सन्तानों ने
महायुद्ध घोषित किए,
जिसको अन्धेपन में मर्यादा
गलित अंग वेश्या-सी
प्रजाजनों को भी रोगी बनाती फिरी
उस अन्धी संस्कृति,
उस रोगी मर्यादा की
रक्षा हम करते रहे
सत्रह दिन। |
प्रहरी-१
|
जिसने अब हमको थका
डाला है
मेहनत हमारी निरर्थक थी
आस्था का,
साहस का,
श्रम का,
अस्तित्व का हमारे
कुछ अर्थ नहीं था
कुछ भी अर्थ नहीं था
|
प्रहरी- २
|
अर्थ नहीं था
कुछ भी अर्थ नहीं था
जीवन के अर्थहीन
सूने गलियारे में
पहरा दे देकर
अब थके हुए हैं हम
अब चुके हुए हैं हम
|
(चुप होकर वे आर-पार घूमते हैं। सहसा स्टेज पर
प्रकाश धीमा हो जाता है। नेपथ्य से आँधी की-सी
ध्वनि आती है। एक प्रहरी कान लगा कर सुनता है,
दूसरा भौंहों पर हाथ रख कर आकाश की ओर देखता है।)
|
प्रहरी-१
|
सुनते हो
कैसी है ध्वनि यह
भयावह?
|
प्रहरी- २ |
सहसा अँधियारा
क्यों होने लगा
देखो तो
दीख रहा है कुछ?
|
प्रहरी-१
|
अन्धे राजा की
प्रजा कहाँ तक देखे?
दीख नहीं पड़ता कुछ
हाँ, शायद बादल है
(दूसरा प्रहरी भी बगल में आकर देखता है और
भयभीत हो उठता है)
|
प्रहरी- २
|
बादल नहीं
है
वे गिद्ध हैं
लाखों-करोड़ों
पाँखें खोले
(पंखों की ध्वनि के साथ स्टेज पर और भी
अँधेरा)
|
प्रहरी-१
|
लो
सारी कौरव नगरी
का आसमान
गिद्धों ने घेर लिया
|
प्रहरी- २
|
झुक जाओ
झुक जाओ
ढालों के नीचे
छिप जाओ
नरभक्षी हैं
वे गिद्ध भूखे हैं।
(प्रकाश तेज़ होने लगता है)
|
प्रहरी-१
|
लो ये
मुड़ गए
कुरुक्षेत्र की दिशा में
(आँधी की ध्वनि कम होने लगती है)
|
प्रहरी- २
|
मौत
कैसे
ऊपर से निकल गई
|
प्रहरी-१
|
अशकुन है
भयानक वह।
पता नहीं क्या होगा
कल तक
इस नगरी में
(विदुर
का प्रवेश, बाई ओर से)
|
प्रहरी-१
विदुर
|
कौन है?
मैं हूँ
विदुर
देखा धृतराष्ट्र ने?
देखा यह भयानक दृश्य? |
प्रहरी-१
|
देखेंगे कैसे वे?
अन्धे हैं।
कुछ भी क्या देख सके
अब तक वे?
|
विदुर
|
मिलूँगा उनसे मैं
अशकुन भयानक है
पता नहीं संजय
क्या समाचार लाए आज? |
(प्रहरी जाते हैं, विदुर
अपने स्थान पर चिन्तातुर
खड़े रहते हैं। पीछे का
पर्दा उठने लगता है।)
|
कथा गायन-
|
है कुरुक्षेत्र से कुछ
भी खबर न आई
जीता या हारा बचा-खुचा
कौरव-दल
जाने किसकी लोथों पर जा
उतरेगा
यह नरभक्षी गिद्धों का
भूखा बादल
अन्तपुर में मरघट की-सी
खामोशी
कृश गान्धारी बैठी है
शीश झुकाए
सिंहासन पर धृतराष्ट्र
मौन बैठे हैं
संजय अब तक कुछ भी
संवाद न लाए।
|
(पर्दा उठने पर
अन्त:पुर। कुशासन
बिछाये सादी चौकी पर
गान्धारी, एक छोटे
सिंहासन पर चिन्तातुर
धृतराष्ट्र। विदुर उनकी
ओर बढ़ते हैं।) |
धृतराष्ट्र-
विदुर- |
कौन संजय?
नहीं!
विदुर हूँ महाराज।
विह्वल है सारा नगर
आज
बचे-खुचे जो भी
दस-बीस लोग
कौरव नगरी में हैं
अपलक नेत्रों से
कर रहे प्रतीक्षा
हैं संजय की।
(कुछ क्षण महाराज
के उत्तर की
प्रतीक्षा कर)
महाराज
चुप क्यों हैं इतने
आप
माता गान्धारी भी
मौन हैं!
|
धृतराष्ट्र- |
विदुर!
जीवन में प्रथम
बार
आज मुझे आशंका
व्यापी है।
|
विदुर-
|
आशंका?
आपको जो व्यापी
है आज
वह वर्षों पहले
हिला गई थी
सबको
|
धृतराष्ट्र-
विदुर-
|
पहले पर कभी
भी तुमने यह
नहीं कहा
भीष्म ने कहा था,
गुरु द्रोण
ने कहा था,
इसी अन्त:पुर
में
आकर कृष्ण ने
कहा था -
'मर्यादा मत
तोड़ो
तोड़ी हुई
मर्यादा
कुचले हुए
अजगर-सी
गुंजलिका में
कौरव-वंश को
लपेट कर
सूखी
लकड़ी-सा
तोड़
डालेगी।'
|
धृतराष्ट्र-
|
समझ नहीं
सकते हो
विदुर तुम।
मैं था
जन्मान्ध।
कैसे कर
सकता था।
ग्रहण मैं
बाहरी
यथार्थ या
सामाजिक
मर्यादा
को?
|
विदुर- |
जैसे
संसार को
किया था
ग्रहण
अपने
अन्धेपन
के
बावजूद
|
धृतराष्ट्र-
|
पर वह
संसार
स्वत:
अपने
अन्धेपन
से
उपजा
था।
मैंने
अपने
ही
वैयक्तिक
सम्वेदन
से जो
जाना
था
केवल
उतना
ही था
मेरे
लिए
वस्तु-जगत्
इन्द्रजाल
की
माया-सृष्टि
के
समान
घने
गहरे
अँधियारे
में
एक
काले
बिन्दु
से
मेरे
मन ने
सारे
भाव
किए थे
विकसित
मेरी
सब
वृत्तियाँ
उसी से
परिचालित
थीं!
मेरा
स्नेह,
मेरी
घृणा,
मेरी
नीति,
मेरा
धर्म
बिलकुल
मेरा
ही
वैयक्तिक
था।
उसमें
नैतिकता
का कोई
बाह्य
मापदंड
था ही
नहीं।
कौरव
जो
मेरी
मांसलता
से
उपजे
थे
वे ही
थे
अन्तिम
सत्य
मेरी
ममता
ही
वहाँ
नीति
थी,
मर्यादा
थी।
|
विदुर-
|
पहले
ही
दिन
से
किन्तु
आपका
वह
अन्तिम
सत्य
-
कौरवों
का
सैनिक-बल
-
होने
लगा
था
सिद्ध
झूठा
और
शक्तिहीन
पिछले
सत्रह
दिन
से
एक-एक
कर
पूरे
वंश
के
विनाश
का
सम्वाद
आप
सुनते
रहे।
|
धृतराष्ट्र-
|
मेरे
लिए
वे
सम्वाद
सब
निरर्थक
थे।
मैं
हूँ
जन्मान्ध
केवल
सुन
ही
तो
सकता
हूँ
संजय
मुझे
देते
हैं
केवल
शब्द
उन
शब्दों
से
जो
आकार-चित्र
बनते
हैं
उनसे
मैं
अब
तक
अपरिचित
हूँ
कल्पित
कर
सकता
नहीं
कैसे
दु:शासन
की
आहत
छाती
से
रक्त
उबल
रहा
होगा,
कैसे
क्रूर
भीम
ने
अँजुली
में
धार
उसे
ओठ
तर
किए
होंगे।
|
गान्धारी-
|
(कानों पर हाथ रखकर)
महाराज।
मत दोहरायें वह
सह नहीं पाऊँगी।
(सब क्षण भर चुप)
|
धृतराष्ट्र-
|
आज मुझे भान हुआ।
मेरी वैयक्तिक सीमाओं के बाहर भी
सत्य हुआ करता है
आज मुझे भान हुआ।
सहसा यह उगा कोई बाँध टूट गया है
कोटि-कोटि योजन तक दहाड़ता हुआ समुद्र
मेरे वैयक्तिक अनुमानित सीमित जग को
लहरों की विषय-जिह्वाओं से निगलता हुआ
मेरे अन्तर्मन में पैठ गया
सब कुछ बह गया
मेरे अपने वैयक्तिक मूल्य
मेरी निश्चिन्त किन्तु ज्ञानहीन आस्थाएँ।
|
iविदुर-
|
यह जो पीड़ा ने
पराजय ने
दिया है ज्ञान,
दृढ़ता ही देगा वह। |
धृतराष्ट्र-
|
किन्तु, इस ज्ञान ने
भय ही दिया है विदुर!
जीवन में प्रथम बार
आज मुझे आशंका व्यापी है।
|
विदुर- |
भय है तो
ज्ञान है अधूरा अभी।
प्रभु ने कहा था वह
'ज्ञान जो समर्पित नहीं है
अधूरा है
मनोबुद्धि तुम अर्पित कर दो
मुझे।
भय से मुक्त होकर
तुम प्राप्त मुझे ही होगे
इसमें संदेह नहीं।' |
गान्धारी-
|
(आवेश से)
इसमें संदेह है
और किसी को मत हो
मुझको है।
'अर्पित कर दो मुझको मनोबुद्धि'
उसने कहा है यह
जिसने पितामह के वाणों से
आहत हो अपनी सारी ही
मनोबुद्धि खो दी थी?
उसने कहा है यह,
जिसने मर्यादा को तोड़ा है बार-बार? |
धृतराष्ट्र-
|
शान्त रहो
शान्त रहो,
गान्धारी शान्त रहो।
दोष किसी को मत दो।
अन्धा था मैं
|
गान्धारी-
|
लेकिन अन्धी नहीं थी मैं।
मैंने यह बाहर का वस्तु-जगत् अच्छी तरह जाना था
धर्म, नीति, मर्यादा, यह सब हैं केवल आडम्बर मात्र,
मैंने यह बार-बार देखा था।
निर्णय के क्षण में विवेक और मर्यादा
व्यर्थ सिद्ध होते आए हैं सदा
हम सब के मन में कहीं एक अन्य गह्वर है।
बर्बर पशु अन्धा पशु वास वहीं करता है,
स्वामी जो हमारे विवेक का,
नैतिकता, मर्यादा, अनासक्ति, कृष्णार्पण
यह सब हैं अन्धी प्रवृत्तियों की पोशाकें
जिनमें कटे कपड़ों की आँखें सिली रहती हैं
मुझको इस झूठे आडम्बर से नफ़रत थी
इसालिए स्वेच्छा से मैंने इन आँखों पर पट्टी चढ़ा रक्खी थी।
|
विदुर-
|
कटु हो गई हो तुम
गान्धारी!
पुत्रशोक ने तुमको अन्दर से
जर्जर कर डाला है!
तुम्हीं ने कहा था
दुर्योधन से
|
गांधारी-
|
मैंने कहा था दुर्योधन से
धर्म जिधर होगा ओ मूर्ख!
उधर जय होगी!
धर्म किसी ओर नहीं था। लेकिन!
सब ही थे अन्धी प्रवृत्तियों से परिचालित
जिसको तुम कहते हो प्रभु
उसने जब चाहा
मर्यादा को अपने ही हित में बदल लिया।
वंचक है।
|
धृतराष्ट्र-
विदुर-
|
शान्त रहो गान्धारी।
यह कटु निराशा की
उद्धत अनास्था है।
क्षमा करो प्रभु!
यह कटु अनास्था भी अपने
चरणों में स्वीकार करो!
आस्था तुम लेते हो
लेगा अनास्था कौन?
क्षमा करो प्रभु!
पुत्र-शोक से जर्जर माता हैं गान्धारी। |
गान्धारी-
|
माता मत कहो मुझे
तुम जिसको कहते हो प्रभु
वह भी मुझे माता ही कहता है।
शब्द यह जलते हुए लोहे की सलाखों-सा
मेरी पसलियों में धँसता है।
सत्रह दिन के अन्दर
मेरे सब पुत्र एक-एक कर मारे गए
अपने इन हाथों से
मैंने उन फूलों-सी वधुओं की कलाइयों से
चूड़ियाँ उतारी हैं
अपने इस आँचल से
सेंदुर की रेखाएँ पोंछी हैं।
(नेपथ्य से) जय हो
दुर्योधन की जय हो।
गान्धारी की जय हो।
मंगल हो,
नरपति धृतराष्ट्र का मंगल हो।
|
धृतराष्ट्र-
|
देखो।
विदुर देखो! संजय आये।
|
गान्धारी -
|
जीत गया
मेरा पुत्र दुर्योधन
मैंने कहा था
वह जीतेगा निश्चय आज।
(प्रहरी का प्रवेश)
|
प्रहरी-
|
याचक है महाराज!
(याचक का प्रवेश)
एक वृद्ध याचक है।
|
विदुर-
|
याचक है?
उन्नत ललाट
श्वेतकेशी
आजानुबाहु? |
याचक -
|
मैं वह भविष्य हूँ
जो झूठा सिद्ध हुआ आज
कौरव की नगरी में
मैंने मापा था, नक्षत्रों की गति को
उतारा था अंकों में।
मानव-नियति के
अलिखित अक्षर जाँचे थे।
मैं था ज्योतिषी दूर देश का।
|
धृतराष्ट्र-
|
याद मुझे आता है
तुमने कहा था कि द्वन्द्व अनिवार्य है
क्योंकि उससे ही जय होगी कौरव-दल की।
|
याचक-
|
मैं हूँ वही
आज मेरा विज्ञान सब मिथ्या ही सिद्ध हुआ।
सहसा एक व्यक्ति
ऐसा आया जो सारे
नक्षत्रों की गति से भी ज़्यादा शक्तिशाली था।
उसने रणभूमि में
विषादग्रस्त अर्जुन से कहा -
'मैं हूँ परात्पर।
जो कहता हूँ करो
सत्य जीतेगा
मुझसे लो सत्य, मत डरो।' |
विदुर-
गान्धारी-
विदुर-
|
प्रभु थे वे!
कभी नहीं!
उनकी गति में ही
समाहित है सारे इतिहासों की,
सारे नक्षत्रों की दैवी गति।
|
याचक-
|
पता नहीं प्रभु हैं या नहीं
किन्तु, उस दिन यह सिद्ध हुआ
जब कोई भी मनुष्य
अनासक्त होकर चुनौती देता है इतिहास को,
उस दिन नक्षत्रों की दिशा बदल जाती है।
नियति नहीं है पूर्वनिर्धारित-
उसको हर क्षण मानव-निर्णय बनाता-मिटाता है।
|
गान्धारी-
|
प्रहरी, इसको एक अंजुल मुद्राएँ दो।
तुमने कहा है-
'जय होगी दुर्योधन की।'
|
याचक-
|
मैं तो हूँ झूठा भविष्य मात्र
मेरे शब्दों का इस वर्तमान में
कोई मूल्य नहीं,
मेरे जैसे
जाने कितने झूठे भविष्य
ध्वस्त स्वप्न
गलित तत्व
बिखरे हैं कौरव की नगरी में
गली-गली।
माता हैं गान्धारी
ममता में पाल रहीं हैं सब को।
(प्रहरी मुद्राएँ लाकर देता है)
जय हो दुर्योधन की
जय हो गान्धारी की
(जाता है)
|
गान्धारी-
|
होगी,
अवश्य होगी जय।
मेरी यह आशा
यदि अन्धी है तो हो
पर जीतेगा दुर्योधन जीतेगा।
(दूसरा प्रहरी आकर दीप जलाता है)
|
विदुर-
धृतराष्ट्र-
|
डूब गया दिन
पर
संजय नहीं आए
लौट गए होंगे
सब योद्धा अब शिविर में
जीता कौन?
हारा कौन?
|
विदुर-
|
महाराज!
संशय मत करें।
संजय जो समाचार लाएँगे शुभ होगा
माता अब जाकर विश्राम करें!
नगर-द्वार अपलक खुले ही हैं
संजय के रथ की प्रतीक्षा में
|
(एक ओर विदुर और दूसरी ओर धृतराष्ट्र तथा गांधारी जाते हैं; प्रहरी पुन: स्टेज के आरपार घूमने लगते हैं)
|
प्रहरी-१
प्रहरी-२
प्रहरी-१
प्रहरी-२ |
मर्यादा!
अनास्था!
पुत्रशोक!
भविष्यत्!
|
प्रहरी-१
ख
प्रहरी-२
ख
प्रहरी-१
ख
प्रहरी-२
ख
- प्रहरी-१
-
प्रहरी-२
-
|
ये सब
राजाओं के जीवन की शोभा हैं
वे जिनको ये सब प्रभु कहते हैं।
इस सब को अपने ही जिम्मे ले लेते हैं।
पर यह जो हम दोनों का जीवन
सूने गलियारे में बीत गया
कौन इसे
अपने जिम्मे लेगा?
हमने मर्यादा का अतिक्रमण नहीं किया,
क्योंकि नहीं थी अपनी कोई भी मर्यादा।
हमको अनास्था ने कभी नहीं झकझोरा,
क्योंकि नहीं थी अपनी कोई भी गहन आस्था।
|
प्रहरी-१ -
प्रहरी-२ -
प्रहरी-१ -
प्रहरी-२ -
प्रहरी-१ -
प्रहरी-२ -
|
हमने नहीं झेला शोक
जाना नहीं कोई दर्द
सूने गलियारे-सा सूना यह जीवन भी बीत गया।
क्योंकि हम दास थे
केवल वहन करते थे आज्ञाएँ हम अन्धे राजा की
नहीं था हमारा कोई अपना खुद का मत,
कोई अपना निर्णय
|
प्रहरी-१ -
|
इसलिए सूने गलियारे में
निरूद्देश्य,
निरूद्देश्य,
चलते हम रहे सदा
दाएँ से बाएँ,
और बाएँ से दाएँ
|
प्रहरी-२ - |
मरने के बाद भी
यम के गलियारे में
चलते रहेंगे सदा
दाएँ से बाएँ
और बाएँ से दाएँ!
(चलते-चलते विंग में चले जाते हैं। स्टेज पर अँधेरा)
धीरे-धीरे पटाक्षेप के साथ |
कथा गायन-
|
आसन्न पराजय वाली इस नगरी में
सब नष्ट हुई पद्धतियाँ धीमे-धीमे
यह शाम पराजय की, भय की, संशय की
भर गए तिमिर से ये सूने गलियारे
जिनमें बूढ़ा झूठा भविष्य याचक-सा
है भटक रहा टुकड़े को हाथ पसारे
अन्दर केवल दो बुझती लपटें बाकी
राजा के अन्धे दर्शन की बारीकी
या अन्धी आशा माता गान्धारी की
वह संजय जिसको वह वरदान मिला है
वह अमर रहेगा और तटस्थ रहेगा
जो दिव्य दृष्टि से सब देखेगा समझेगा
जो अन्धे राजा से सब सत्य कहेगा।
जो मुक्त रहेगा ब्रम्हास्त्रों के भय से
जो मुक्त रहेगा, उलझन से, संशय से
वह संजय भी
इस मोह-निशा से घिर कर
है भटक रहा
जाने किस
कंटक-पथ पर।
|