पशु का उदय |
कथा-गायन-
|
संजय तटस्थद्रष्टा शब्दों का शिल्पी है
पर वह भी भटक गया असंजस के वन में
दायित्व गहन, भाषा अपूर्ण, श्रोता अन्धे
पर सत्य वही देगा उनको संकट-क्षण में
वह संजय भी
इस मोह-निशा से घिर कर
है भटक रहा
जाने किस कंटक-पथ पर |
(पर्दा उठने
पर वनपथ का दृश्य। कोई योद्धा बगल में अस्त्र रख कर वस्त्र
से मुख ढाँप सोया है। संजय का प्रवेश)
|
संजय- |
भटक गया हूँ
मैं जाने किस कंटक-वन में
पता नहीं कितनी दूर हस्तिनापुर हैं,
कैसे पहुँचूँगा मैं?
जाकर कहूँगा क्या
इस लज्जाजनक पराजय के बाद भी
क्यों जीवित बचा हूँ मैं?
कैसे कहूँ मैं
कमी नहीं शब्दों की आज भी
मैंने ही उनको बताया है
युद्ध में घटा जो-जो,
लेकिन आज अन्तिम पराजय के अनुभव ने
जैसे प्रकृति ही बदल दी है सत्य की
आज कैसे वही शब्द
वाहक बनेंगे इस नूतन-अनुभूति के?
(सहसा जाग कर वह योद्धा पुकारता है -
संजय)
किसने पुकारा मुझे?
प्रेतों की ध्वनि है यह
या मेरा भ्रम ही है?
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कृतवर्मा-
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डरो मत
मैं हूँ कृतवर्मा!
जीवित हो संजय तुम?
पांडव योद्धाओं ने छोड़ दिया
जीवित तुम्हें?
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संजय-
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जीवित हूँ।
आज जब कोसों तक फैली हुई धरती को
पाट दिया अर्जुन ने
भूलुँठित कौरव-कबन्धों से,
शेष नहीं रहा एक भी
जीवित कौरव-वीर
सात्यकि ने मेरे भी वध को उठाया अस्त्र;
अच्छा था
मैं भी
यदि आज नहीं बचता शेष,
किन्तु कहा व्यास ने 'मरेगा नहीं
संजय अवध्य है'
कैसा यह शाप मुझे व्यास ने दिया है
अनजाने में
हर संकट, युद्ध, महानाश, प्रलय, विप्लव के बावजूद
शेष बचोगे तुम संजय
सत्य कहने को
अन्धों से
किन्तु कैसे कहूँगा हाय
सात्यकि के उठे हुए अस्त्र के
चमकदार ठंडे लोहे के स्पर्श में
मृत्यु को इतने निकट पाना
मेरे लिए यह
बिल्कुल ही नया अनुभव था।
जैसे तेज वाण किसी
कोमल मृणाल को
ऊपर से नीचे तक चीर जाए
चरम त्रास के उस बेहद गहरे क्षण में
कोई मेरी सारी अनुभूतियों को चीर गया
कैसे दे पाऊँगा मैं सम्पूर्ण सत्य
उन्हें विकृत अनुभूति से?
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कृतवर्मा
-
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धैर्य धरो संजय!
क्योंकि तुमको ही जाकर बतानी है
दोनों को पराजय दुर्योधन की!
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संजय -
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कैसे बताऊँगा!
वह जो सम्राटों का अधिपति था
खाली हाथ
नंगे पाँव
रक्त-सने
फटे हुए वस्त्रों में
टूटे रथ के समीप
खड़ा था निहत्था हो;
अश्रु-भरे नेत्रों से
उसने मुझे देखा
और माथा झुका लिया
कैसे कहूँगा
मैं जाकर उन दोनों से
कैसे कहूँगा?
(जाता है)
|
कृतवर्मा- |
चला गया संजय भी
बहुत दिनों पहले
विदुर ने कहा था
यह होकर रहेगा,
वह होकर रहा आज
(नेपथ्य में कोई पुकारता है,
"अश्वत्थामा।" कृतवर्मा ध्यान से सुनता है)
यह तो आवाज़ है
बूढ़े कृपाचार्य की।
(नेपथ्य में पुन: पुकार
'अश्वत्थामा।' कृतवर्मा पुकारता है - कृपाचार्य
कृपाचार्य' कृपाचार्य का प्रवेश)
यह तो कृतवर्मा है।
तुम भी जीवित हो कृतवर्मा?
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कृतवर्मा-
|
जीवित हूँ
क्या अश्वत्थामा भी जीवित है?
|
कृपाचार्य- |
जीवित है
केवल हम तीन
आज!
रथ से उतर कर
जब राजा दुर्योधन ने
नतमस्तक होकर
पराजय स्वीकार की
अश्वत्थामा ने
यह देखा
और उसी समय
उसने मरोड़ दिया
अपना धनुष
आर्तनाद करता हुआ
वन की ओर चला गया
अश्वत्थामा
|
(पुकारते हुए जाते हैं, दूर से उनकी पुकार सुन
पड़ती है। पीछे का पर्दा खुल कर अन्दर का
दृष्य। अँधेरा - केवल एक प्रकाश-वृत्त
अश्वत्थामा पर, जो टूटा धनुष हाथ में लिए बैठा
है।)
|
अश्वत्थामा -
|
यह मेरा धनुष है
धनुष अश्वत्थामा का
जिसकी प्रत्यंचा खुद द्रोण ने चढ़ाई थी
आज जब मैंने
दुर्योधन को देखा
नि:शस्त्र, दीन
आँखों में आँसू भरे
मैंने मरोड़ दिया
अपने इस धनुष को।
कुचले हुए साँप-सा
भयावह किन्तु
शक्तिहीन मेरा धनुष है यह
जैसा है मेरा मन
किसके बल पर लूँगा
मैं अब
प्रतिशोध
पिता की निर्मम हत्या का
वन में
भयानक इस वन में भी
भूल नहीं पाता हूँ मैं
कैसे सुनकर
युधिष्ठिर की घोषणा
कि 'अश्वत्थामा मारा गया'
शस्त्र रख दिए थे
गुरु द्रोण ने रणभूमि में
उनको थी अटल आस्था
युधिष्ठिर की वाणी में
पाकर निहत्था उन्हें
पापी दृष्टद्युम्न ने
अस्त्रों से खंड-खंड कर डाला
भूल नहीं पाता हूँ
मेरे पिता थे अपराजेय
अर्द्धसत्य से ही
युधिष्ठिर ने उनका
वध कर डाला।
उस दिन से
मेरे अन्दर भी
जो शुभ था, कोमलतम था
उसकी भ्रूण-हत्या
युधिष्ठिर के
अर्धसत्य ने कर दी
धर्मराज होकर वे बोले
'नर या कुंजर'
मानव को पशु से
उन्होंने पृथक् नहीं किया
उस दिन से मैं हूँ
पशुमात्र, अन्ध बर्बर पशु
किन्तु आज मैं भी एक अन्धी गुफ़ा में हूँ भटक
गया
गुफ़ा यह पराजय की!
दुर्योधन सुनो!
सुनो, द्रोण सुनो!
मैं यह तुम्हारा अश्वत्थामा
कायर अश्वत्थामा
शेष हूँ अभी तक
जैसे रोगी मुर्दे के
मुख में शेष रहता है
गन्दा कफ
बासी थूक
शेष हूँ अभी तक मैं
(वक्ष पीटता है)
आत्मघात कर लूँ?
इस नपुंसक अस्तित्व से
छुटकारा पाकर
यदि मुझे
पिछली नरकाग्नि में उबलना पड़े
तो भी शायद
इतनी यातना नहीं होगी!
(नेपथ्य में पुकार
अश्वत्थामा )
किन्तु नहीं!
जीवित रहूँगा मैं
अन्धे बर्बर पशु-सा
वाणी हो सत्य धर्मराज की।
मेरी इस पसली के नीचे
दो पंजे उग आयें
मेरी ये पुतलियाँ
बिन दाँतों के चोथ खायें
पायें जिसे।
वध, केवल वध, केवल वध
अंतिम अर्थ बने
मेरे अस्तित्व का।
(किसी के आने की आहट)
आता है कोई
शायद पांडव-योद्धा है
आ हा!
अकेला, निहत्था है।
पीछे से छिपकर
इस पर करूँगा वार
इन भूखे हाथों से
धनुष मरोड़ा है
गर्दन मरोडूँगा
छिप जाऊँ, इस झाड़ी के पीछे।
(छिपता है। संजय का
प्रवेश)
|
संजय-
|
फिर भी रहूँगा
शेष
फिर भी रहूँगा शेष
फिर भी रहूँगा शेष
सत्य कितना कटु हो
कटु से यदि कटुतर हो
कटुतर से कटुतम हो
फिर भी कहूँगा मैं
केवल सत्य, केवल सत्य, केवल सत्य
है अन्तिम अर्थ
मेरे आह!
(अश्वत्थामा आक्रमण
करता है। गला दबोच लेता है)
|
अश्वत्थामा
- |
इसी तरह
इसी तरह
मेरे भूखे पंजे जाकर दबोचेंगे
वह गला युधिष्ठिर का
जिससे निकला था
'अश्वत्थामा हतो हत:'
(कृतवर्मा और
कृपाचार्य प्रवेश करते हैं)
|
कृतवर्मा
- |
(चीखकर)
छोड़ो अश्वत्थामा!
संजय है वह
कोई पांडव नहीं है।
|
अश्वत्थामा -
कृपाचार्य -
|
केवल,
केवल वध, केवल
कृतवर्मा, पीछे से पकड़ो
कस लो अश्वत्थामा को।
वध - लेकिन शत्रु का -
कैसे योद्धा हो अश्वत्थामा?
संजय अवध्य है
तटस्थ है।
|
अश्वत्थामा -
|
(कृतवर्मा
के बन्धन में छटपटाता हुआ)
तटस्थ?
मातुल मैं योद्धा नहीं हूँ
बर्बर पशु हूँ
यह तटस्थ शब्द
है मेरे लिए अर्थहीन।
सुन लो यह घोषणा
इस अन्धे बर्बर पशु की
पक्ष में नहीं है जो मेरे
वह शत्रु है। |
कृतवर्मा -
|
पागल हो तुम
संजय, जाओ अपने पथ पर
|
संजय -
|
मत छोड़ो
विनती करता हूँ
मत छोड़ो मुझे
कर दो वध
जाकर अन्धों से
सत्य कहने की
मर्मान्तक पीड़ा है जो
उससे जो वध ज़्यादा सुखमय है
वध करके
मुक्त मुझे कर दो
अश्वत्थामा!
(अश्वत्थामा विवश दृष्टि से
कृपाचार्य की ओर देखता है,
उनके कन्धों से शीश टिका देता
है)
|
अश्वत्थामा -
|
मैं क्या करूँ?
मातुल;
मैं क्या करूँ?
वध मेरे लिए नहीं रही नीति
वह है अब मेरे लिए
मनोग्रंथि
किसको पा जाऊँ
मरोडूँ मैं!
मैं क्या करूँ?
मातुल, मैं क्या करूँ?
|
कृपाचार्य -
|
mमत
हो निराश
अभी
,
, , ,
|
कृतवर्मा -
|
करना बहुत कुछ है
जीवित अभी भी है
दुर्योधन
चल कर सब खोजें उन्हें।
|
कृपाचार्य -
|
संजय
तुम्हें ज्ञात है
कहाँ है वे?
|
संजय - |
(धीमे से)
वे हैं सरोवर में
माया से बाँध कर
सरोवर का जल
वे निश्चल
अन्दर बैठे हैं
ज्ञात नहीं है
यह पांडव-दल को।
|
कृपाचार्य -
|
स्वस्थ हो
अश्वत्थामा
चल कर आदेश लो
दुर्योधन से
संजय, चलो
तुम सरोवर तक
पहुँचा दो
|
कृतवर्मा -
|
कौन आ रहा है
वह
वृद्ध व्यक्ति?
|
कृपाचार्य -
|
निकल चलो
इसके पहले कि
हमको
कोई भी देख
पाए
|
अश्वत्थामा
-
|
(जाते-जाते)
मैं क्या
करूँ मातुल
मैंने तो
अपना धनुष
भी मरोड़
दिया।
(वे जाते
हैं। कुछ
क्षण स्टेज
खाली रहता
है। फिर
धीरे-धीरे
वृद्ध याचक
प्रवेश
करता है)
|
वृद्ध
याचक -
|
दूर चला
आया हूँ
काफी
हस्तिनापुर
से,
वृद्ध
हूँ, दीख
नहीं
पड़ता है
निश्चय
ही अभी
यहाँ
देखा था
मैंने
कुछ
लोगों को
देखूँ
मुझको जो
मुद्राएँ
दीं
माता
गान्धारी
ने
वे तो
सुरक्षित
हैं।
मैंने यह
कहा था
'यह है
अनिवार्य
और वह है
अनिवार्य
और यह तो
स्वयम्
होगा' -
आज इस
पराजय की
बेला में
सिद्ध
हुआ
झूठी थी
सारी
अनिवार्यता
भविष्य
की।
केवल
कर्म
सत्य है
मानव जो
करता है,
इसी समय
उसी में
निहित है
भविष्य
युग-युग
तक का!
(हाँफता
है)
इसलिए
उसने कहा
अर्जुन
उठाओ
शस्त्र
विगतज्वर
युद्ध
करो
निष्क्रियता
नहीं
आचरण में
ही
मानव-अस्तित्व
की
सार्थकता
है।
(नीचे
झुक कर
धनुष
देखता
है।
उठाकर)
किसने यह
छोड़
दिया
धनुष
यहाँ?
क्या फिर
किसी
अर्जुन
के
मन में
विषाद
हुआ?
|
अश्वत्थामा
-
|
(प्रवेश
करते
हुए)
मेरा
धनुष
है
यह।
|
वृद्ध
याचक
-
|
कौन
आ
रहा
है
यह?
जय
अश्वत्थामा
की!
|
अश्वत्थामा
-
|
जय
मत
कहो
वृद्ध!
जैसे
तुम्हारी
भविष्यत्
विद्या
सारी
व्यर्थ
हुई
उसी
तरह
मेरा
धनुष
भी
व्यर्थ
सिद्ध
हुआ।
मैंने
अभी
देखा
दुर्योधन
को
जिसके
मस्तक
पर
मणिजटित
राजाओं
की
छाया
थी
आज
उसी
मस्तक
पर
गँदले
पानी
की
एक
चादर
है।
तुमने
कहा
था
-
जय
होगी
दुर्योधन
की
|
वृद्ध याचक -
|
जय हो दुर्योधन की -
अब भी मैं कहता हूँ
वृद्ध हूँ
थका हूँ
पर जाकर कहूँगा मैं
'नहीं है पराजय यह दुर्योधन की
इसको तुम मानो नये सत्य की उदय-वेला।'
मैंने बतलाया था
उसको झूठा भविष्य
अब जा कर उसको बतलाऊँगा
वर्तमान से स्वतन्त्र कोई भविष्य नहीं
अब भी समय है दुर्योधन,
समय अब भी है!
हर क्षण इतिहास बदलने का क्षण होता है।
(धीरे-धीरे जाने लगता है।)
|
अश्वत्थामा -
|
मैं क्या करूँगा
हाय मैं क्या करूँगा?
वर्तमान में जिसके
मैं हूँ और मेरी प्रतिहिंसा है!
एक अर्द्धसत्य ने युधिष्ठिर के
मेरे भविष्य की हत्या कर डाली है।
किन्तु, नहीं,
जीवित रहूँगा मैं
पहले ही मेरे पक्ष में
नहीं है निर्धारित भविष्य अगर'
तो वह तटस्थ है!
शत्रु है अगर वह तटस्थ है!
(वृद्ध की ओर बढ़ने लगता है।)
आज नहीं बच पाएगा
वह इन भूखे पंजों से
ठहरो! ठहरो!
ओ झूठे भविष्य
वंचक वृद्ध!
(दाँत पीसते हुए दौड़ता है। विंग के निकट वृद्ध को दबोच कर नेपथ्य में घसीट ले जाता है।)
वध, केवल वध, केवल वध
मेरा धर्म है।
|
(नेपथ्य में गला घोंटने की आवाज, अश्वत्थामा का अट्टाहास। स्टेज पर केवल दो प्रकाश-वृत्त नृत्य करते हैं। कृपाचार्य, कृतवर्मा हाँफते हुए अश्वत्थामा को पकड़ कर स्टेज पर ले जाते हैं।) |
कृपाचार्य -
|
यह क्या किया,
अश्वत्थामा।
यह क्या किया?
|
अश्वत्थामा -
|
पता नहीं मैंने क्या किया,
मातुल मैंने क्या किया!
क्या मैंने कुछ किया? |
कृतवर्मा -
|
कृपाचार्य
भय लगता है
मुझको
इस अश्वत्थामा से!
|
(कृपाचार्य अश्वत्थामा को बिठाकर, उसका कमरबन्द ढीला करते हैं। माथे का पसीना पोंछते हैं।)
|
कृपाचार्य -
|
बैठो
विश्राम करो
तुमने कुछ नहीं किया
केवल भयानक स्वप्न देखा है!
|
अश्वत्थामा -
|
मैं क्या करूँ
मातुल!
वध मेरे लिए नहीं नीति है,
वह है अब मनोग्रन्थि!
इस वध के बाद
मांसपेशियों का सब तनाव
कहते क्या इसी को हैं
अनासक्ति?'
|
कृपाचार्य -
|
(अश्वत्थामा को लिटा कर)
सो जाओ!
कहा है दुर्योधन ने
जाकर विश्राम करो
कल देखेंगे हम
पांडवगण क्या करते हैं -
करवट बदल कर
तुम सो जाओ
(कृतवर्मा से)
सो गया।
|
कृतवर्मा -
|
(व्यंग्य से)
सो गया।
इसलिए शेष बचे हैं हम
इस युद्ध में
हम जो योद्धा थे
अब लुक-छिप कर
बूढ़े निहत्थों का
करेंगे वध।
|
कृपाचार्य -
|
शान्त रहो कृतवर्मा
योद्धा नामधारियों में
किसने क्या नहीं
किया है
अब तक?
द्रोण थे बूढ़े निहत्थे
पर
छोड़ दिया था क्या
उनको धृष्टद्युम्न ने?
या हमने छोड़ा अभिमन्यु को
यद्यपि वह बिलकुल निहत्था था
अकेला था
सात महारथियों ने... |
अश्वत्थामा -
|
मैंने नहीं मारा उसे
मैं तो चाहता था वध करना भविष्य का
पता नहीं कैसे वह
बूढ़ा मरा पाया गया।
मैंने नहीं मारा उसे
मातुल विश्वास करो।
|
कृपाचार्य -
|
सो जाओ
सो जाओ कृतवर्मा!
पहरा मैं देता रहूँगा आज रात भर।
(वे लौटते हैं। पर्दा गिरने लगता है।)
जिस तरह बाढ़ के बाद उतरती गंगा
तट पर तज आती विकृति, शव अधखाया
वैसे ही तट पर तज अश्वत्थामा को
इतिहासों ने खुद नया मोड़ अपनाया
वह छटी हुई आत्माओं की रात
यह भटकी हुई आत्माओं की रात
यह टूटी हुई आत्माओं की रात
इस रात विजय में मदोन्मत्त पांडवगण
इस रात विवश छिपकर बैठा दुर्योधन
यह रात गर्व में
तने हुए माथों की
यह रात हाथ पर
धरे हुए हाथों की
(पटक्षेप)
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