अश्वत्थामा का अर्धसत्य |
कथा-गायन- |
संजय का रथ जब नगर-द्वार पहुँचा
तब रात ढल रही थी।
हारी कौरव सेना कब लौटेगी
यह बात चल रही थी।
संजय से सुनते-सुनते युद्ध-कथा
तब रात ढल रही थी।
हारी कौरव सेना कब लौटेगी
वह बात चल रही थी।
संजय से सुनते-सुनते युद्ध-कथा
हो गई सुबह; पाकर यह गहन व्यथा
गान्धारी पत्थर थी; उस श्रीहत मुख पर
जीवित मानव-सा कोई चिह्न न था।
दुपहर होते-होते हिल उठा नगर
खंडित रथ टूटे छकड़ों पर लद कर
थे लौट रहे ब्राहृमण, स्त्रियाँ, चिकित्सक,
विधवाएँ, बौने, बूढ़े, घायल, जर्जर।
जो सेना रंगबिरंगी ध्वजा उड़ाते
रौंदते हुए धरती को, गगन कँपाते
थी गई युद्ध को अठ्ठारह दिन पहले
उसका यह रूप हो गया आते-आते।
|
(पर्दा उठता
है। प्रहरी खड़े हैं। विदुर का सहारा लेकर धृतराष्ट्र प्रवेश
करते हैं।)
|
धृतराष्ट्र -
|
देख नहीं सकता हूँ
पर मैंने छू-छू कर
अंग-भंग सैनिकों को
देखने की कोशिश की
बाँह के पास से
हाथ जब कट जाता है।
लगता है कैसा जैसे मेरे सिंहासन का
हत्था है।
|
विदुर -
|
महाराज
यह सब सोच रहे हैं
आप?
|
धृतराष्ट्र -
|
कोई ख़ास बात नहीं
सिर्फ़ मैं संजय के शब्दों से
सुनता आया था जिसे
आज उसी युद्ध को हाथों से छू-छू कर
अनुभव करने का अवसर पाया है।
|
(इसी बीच में एक पंगु-गूँगा सैनिक घिसटता हुआ आता
है। विदुर के पाँव पकड़ कर उन्हें अपनी ओर आकर्षित
करता है। चुल्लू से संकेत कर पानी माँगता है।) |
विदुर- |
(चौंककर)
क्या है? ओह।
प्रहरी थोड़ा जल लाओ |
धृतराष्ट्र- |
कौन है विदुर? |
विदुर- |
एक
प्यासा सैनिक है महाराज!
(सैनिक गूँगी जिहृवा से
जाने क्या-क्या कहता है।) |
धृतराष्ट्र- |
क्या कह रहा है यह? |
विदुर- |
कहता
है 'जय हो धृतराष्ट्र की?'
जिह्वा कटी है महाराज।
गूँगा है। |
धृतराष्ट्र- |
गूँगों के सिवा आज
और कौन बोलेगा मेरी जय
(प्रहरी लाकर जल देता है।
गूँगा हाँफने लगता है।) |
प्रहरी-१ |
(मस्तक
छूकर)
ज्वर है इसे तो |
धृतराष्ट्र-
|
पिला दिया जल इसको!
कह दो विश्राम करे इधर कहीं
(गूँगा पीछे जाकर आँख मूँद
कर पड़ रहता है)
वस्त्र इसे दो लाकर
माता गान्धारी से। |
प्रहरी- |
माता
गान्धारी आज दान-गृह में
हैं ही नहीं। |
विदुर-
|
उनकी
आँखों में
आँसू भी नहीं है
न शोक है
न क्रोध है
जड़वत् पत्थर-सी वे बैठी हैं
सीढ़ी पर।
(नेपथ्य में शोरगुल) |
धृतराष्ट्र- |
प्रहरी जाकर देखो
कैसा है शोर वह।
(प्रहरी जाता है।) |
विदुर- |
महाराज।
आप जायें
जाकर आश्वासन दें माता गान्धारी को। |
धृतराष्ट्र- |
जाता हूँ
संजय भी नहीं हैं वहाँ
पता नहीं भीम और दुर्योधन के अन्तिम द्वन्द्वयुद्ध
का
वह क्या समाचार लाए आज।
(शोर बढ़ता है।) |
विदुर- |
महाराज, आप जायें।
(धृतराष्ट्र दूसरे प्रहरी
के साथ जाते हैं।)
कैसा है शोर यह?
(प्रहरी लौटता है।)
फैल गया है |
प्रहरी-
|
पूरे नगर में
अचानक
आतंक
त्रास। |
विदुर-
प्रहरी-१- |
क्यों?
अपनी हारी घायल सेना
के साथ-साथ
कोई विपक्षी योद्धा भी
चला आया है
नगरी में
अस्त्रों से सज्जित है
दैत्याकार
योद्धा
वह?
जनता कहती है वह नगरी को लूटेगा
(दूसरा प्रहरी लौट आता है।) |
विदुर- |
छि :
यह सब मिथ्या है!
मैं खुद जाकर
उसको देखूँगा
रक्षा करो तुम
राजकक्ष की।
(जाते हैं।)
|
प्रहरी-२-
|
क्या तुमने
देखा था अपनी आँखों से
उस योद्धा को? |
प्रहरी-१- |
मायावी है वह
रूप धारण करता है नित नये-नये
बन्द कर दिया
जब रक्षकगण ने नगर-द्वार,
धारण कर रूप
एक गृद्ध का
उड़ कर चला आया,
और लगा खाने
छत पर सोये बच्चों को।
बन्द नगर-द्वारों के
ऊपर से |
प्रहरी-२-
|
बन्द करो
जल्द से द्वार पश्चिम के! |
प्रहरी-१-
प्रहरी-२-
प्रहरी-१-
प्रहरी-२-
|
(भय से) वह देखो।
(भय से) क्या है।
वह आया।
छिपो, इधर
छिपो
(दोनों पीछे छिपते हैं।
एक साधारण योद्धा का प्रवेश)
|
युयुत्सु-
|
डरने में
उतनी यातना नहीं है
जितनी वह होने में जिससे
सबके सब केवल भय खाते हों।
वैसा ही मैं हूँ आज
ये हैं महल
मेरे पिता, मेरी माता कै
लेकिन कौन जाने
यहाँ स्वागत हो
मेरा
एक ज़हर बुझे भाले से।
|
प्रहरी-१- |
ये तो युयुत्सु हैं
पुत्र धृतराष्ट्र के,
युद्ध में लड़े जो
युधिष्ठिर के पक्ष में। |
युयुत्सु-
|
मेरा अपराध सिर्फ इतना है
सत्य पर रहा मैं दृढ़
द्रोण भीष्म
सबके सब महारथी
नहीं जा सके
दुर्योधन के विरुद्ध
फिर भी मैंने कहा
पक्ष मैं असत्य का नहीं लूँगा।
मैं भी हूँ कौरव
पर सत्य बड़ा है कौरव-वंश से |
प्रहरी-२- |
निश्चय युयुत्सु हैं!
लगता है लौटे हैं!
घायल सेना के साथ! |
युयुत्सु-
|
मैं भी
सह लेता यदि
सब उच्छृंखलता दुर्योधन की
आज मुझे इतनी घृणा तो
न मिलती
अपने ही परिवार में।
माता खड़ी होती
बाँह फैलाये
चाहे पराजित ही मेरा माथा होता। |
विदुर-
|
(आते हैं।)
ढूँढ़ रहा हूँ।
कब से तुमको युयुत्सु
वत्स!
अच्छा किया तुम जो वापस चले आये।
प्रहरी जाओ, जाकर
माता गान्धारी को सूचित करो
पुत्र-शोक से पीड़ित माता
तुम्हें पाकर शायद
दु:ख भूल जाए! |
युयुत्सु-
|
पता नहीं
मेरा मुख भी देखेंगी
या नहीं |
विदुर- |
ऐसा मत कहो।
कौरव-पुत्रों की इस कलुषित कथा में
एक तुम हो केवल |
युयुत्सु-
|
जिसका माथा गर्वोन्नत है।
(कटुता से हँसकर)
इसीलिए देखकर मुझे आता
बन्द कर लिये
पट नागरिकों ने
सबने कहा
वह है मायावी
शिशुभक्षी
दैत्याकार
गृद्धवत्।
|
विदुर- |
इस पर विषाद मत करो युयुत्सु
अज्ञानी, भय डूबे, साधारण लोगों से
यह तो मिलता ही है सदा उन्हें
जो कि एक निश्चित परिपाटी
से होकर पृथक्
अपना पथ अपने आप
निर्धारित करते हैं।
(प्रहरी के साथ
गान्धारी का प्रवेश)
|
प्रहरी-२- |
माता गान्धारी
पधारी हैं।
(युयुत्सु चरण
छूता है। गान्धारी निश्चल खड़ी रहती
है।) |
विदुर- |
माता!
ये हैं युयुत्सु
चरण छू रहे हैं
इनको आशीष दो।
|
गान्धारी-
|
(क्षणभर
चुप रहकर उपेक्षा से)
पूछो विदुर इससे
कुशल से हैं?
(युयुत्सु
और विदुर चुप रहते हैं।)
बेटा,
भुजाएँ ये तुम्हारी
पराक्रम भरी
थकी तो नहीं
अपने बन्धुजनों का
वध करते-करते?
(चुप)
पांडव के शिविरों के वैभव
के बाद
तुम्हें अपना नगर तो
श्रीहत-सा लगता होगा?
(चुप)
चुप क्यों हो?
थका हुआ होगा यह
विदुर इसे फूलों की शय्या दो
कोई पराजित दुर्योधन नहीं है वह
सोये जो जाकर
सरोवर की
कीचड़ में।
(चुप)
चुप क्यों हैं विदुर यह?
क्या मैं माता हूँ
इसके शत्रुओं की
इसीलिए
(जाने लगती
है)
प्रहरी चलो
|
विदुर-
|
माता! यह
शोभा नहीं देता तुम्हें
माता!
(रुकती
नहीं, चली जाती हैं।) |
युयुत्सु-
|
यह
क्या किया?
माँ ने यह क्या किया
विदुर?
(सिर
झुका कर बैठ जाता है।)
अच्छा था यदि मैं
कर लेता समझौता असत्य से। |
विदुर-
|
लेकिन
वह कोई समाधान तो नहीं था
समस्या का!
कर लेते यदि तुम
समझौता असत्य से
तो अन्दर से जर्जर हो जाते। |
युयुत्सु-
|
अब यह माँ
की कटुता
घृणा प्रजाओं की
क्या मुझको अन्दर से बल देगी?
अन्तिम परिणति में
दोनों जर्जर करते हैं
पक्ष चाहे सत्य का हो
अथवा असत्य का!
मुझको क्या मिला विदुर,
मुझको क्या मिला? |
विदुर-
|
शान्त हो
युयुत्सु
और सहन करो,
गहरी पीड़ाओं को गहरे में वहन
करो
(कुछ देर
पूर्व से गूँगे के हाँफने की
आवाज़ आ रही है जो सहसा तेज़ हो
जाती है।) |
प्रहरी-१-
|
कैसी
आवाज़ है प्रहरी यह
वह गूँगा सैनिक
है शायद दम तोड़ रहा।
(प्रहरी-२ जल लाता है) |
विदुर- |
यह लो
युयुत्सु
उसे जल दो
और स्नेह दो
मरतों को जीवन दो
झेलो कटुताओं को। |
युयुत्सु-
|
(गूँगे
के पास जाकर)
गोद में रक्खो सर
मुँह खोलो
ऐसे, हाँ,
खोलो आँखें
(गूँगा
आँख खोलता है, पानी मुँह से
लगाता है। साहसा वह चीख उठता
है। गिरता-पड़ता हुआ, घिसटता
हुआ भागता है।) |
प्रहरी-२-
युयुत्सु-
|
यह क्या
हुआ?
मैं ही
अपराधी हूँ
यह एक एक अश्वारोही कौरव-सेना
का
मेरे अग्निवाणों से
झुलस गए थे घुटने इसके
नष्ट किया है खुद मैंने
जिसका जीवन
वह कैसे अब
मेरी ही करुणा स्वीकार करे
मेरी यह परिणति है
स्नेह भी अगर मैं दूँ
तो वह स्वीकार नहीं औरों को
व्यास ने कहा
मुझसे
कृष्ण जिधर होंगे
जय भी उधर होगी
जय है यह कृष्ण की
जिसमें मैं वधिक हूँ
मातृवंचित हूँ
सब की घृणा का पात्र हूँ।
|
विदुर- |
आज इस
पराजय की सेवा में
पता नहीं
जाने क्या झूठा पड़ गया
कहाँ
सब के सब कैसे
उतर आये हैं अपनी धुरी से
आज
एक-एक कर सारे पहिये
हैं उतर गये जिससे
वह बिलकुल निकम्मी धुरी
तुम हो
क्या तुम हो प्रभु?
(सहसा अन्त:पुर में भयंकर
आर्तनाद) |
युयुत्सु-
विदुर-
|
यह
क्या हुआ विदुर?
प्रहरी
ज़रा देखो तुम!
(प्रहरी १ जाकर तुरन्त
लौटता है) |
प्रहरी-१-
विदुर-
प्रहरी-१-
|
संजय
यह समाचार लाए हैं
(आकुलता से) क्या?
द्वन्द्वयुद्ध में...
राजा
दुर्योधन...
पराजित हुए।
|
(विदुर
और युयुत्सु झपट कर जाते
हैं। आर्तनाद बढ़ता है।
पीछे से कोई घोषणा करता
है 'राजा दुर्योधन पराजित
हुए।')
(पीछे का पर्दा उठने लगता
है। पांडवों की समवेत
हर्षध्वनि और जयकार सुन
पड़ती है।
वनपथ का दृष्य
है। धनुष चढ़ाये, भागते
हुए कृतवर्मा तथा
कृपाचार्य आते हैं।)
|
कृतवर्मा-
|
यहीं कहीं छिप जाओ
कृपाचार्य!
शंख-ध्वनि करते हुए
जीते हुए पांडवगण
लौट रहे हैं अपने
शिविरों को |
कृपाचार्य- |
ठहरो।
उठाओ धनुष
वह आ रहा है कौन? |
कृतवर्मा- |
नहीं-नहीं, वह
अश्वत्थामा है
छद्मवेश धारण कर
देखने गया था युद्ध
दुर्योधन-भीम का!
(अश्वत्थामा का प्रवेश) |
अश्वत्थामा- |
मातुल सुनो!
मारे गये राजा दुर्योधन |
कृपाचार्य-
|
अधर्म से...
(चुप रहने का संकेत कर)
छिप जाओ!
पांडवों से होकर पृथक्
क्रोधित बलराम |
कृतवर्मा- |
इधर आते हैं।
(नेपथ्य की ओर देखकर)
कृष्ण भी हैं
उनके साथ |
कृपाचार्य-
|
सुनो,
ध्यान देकर सुनो। |
बलराम-
|
(केवल नेपथ्य से)
नहीं!
नहीं!
नहीं!
तुम कुछ भी कहो कृष्ण
निश्चय ही भीम ने किया
है अन्याय आज
उसका अधर्म-वार
अनुचित था।
|
कृपाचार्य-
|
जाने क्या समझा रहे
हैं कृष्ण?
|
बलराम- |
(नेपथ्य-स्वर)
पाण्डव सम्बन्धी हैं?
तो क्या कौरव शत्रु
थे?
मैं तो आज बता देता
भीम को
पर तुमने रोक दिया
जानता हूँ मैं तुमको
शैशव से
रहे हो सदा
मर्यादाहीन
कूटबुद्धि।
|
कृपाचार्य-
|
(धनुष रखते हुए)
उधर मुड़ गए दोनों |
बलराम- |
(नेपथ्य-स्वर; दूर
जाता हुआ)
जाओ हस्तिनापुर
समझाओ गान्धारी को
कुछ भी करो कृष्ण
लेकिन मै कहता हूँ
सारी तुम्हारी
कूटबुद्धि
और प्रभुता के
बावजूद
शंख-ध्वनि करते हुए
अपने शिविरों को जो
जाते हैं पाण्डवगण,
वे भी निश्चय मारे
जायेंगे अधर्म से!
|
अश्वत्थामा- |
(दोहराते हुए)
वे भी निश्चय
मारे जायेंगे
अधर्म से! |
कृपाचार्य-
|
वत्स!
किस चिन्ता में
लीन हो?
वे भी निश्चय ही
मारे जायेंगे
अधर्म से |
अश्वत्थामा-
|
सोच लिया
मातुल मैंने
बिलकुल सोच लिया
उनको मैं
मारूँगा!
मैं अश्वत्थामा
उन नीचों को
मारूँगा! |
कृतवर्मा- |
(व्यंग्य से)
जैसे तुमने मारा
था
वृद्ध याचक को। |
अश्वत्थामा- |
(चिढ़ कर)
हाँ, बिलकुल वैसे
ही
जब तक निर्मूल
नहीं कर दूँगा
मैं पांडव वंश
को... |
कृतवर्मा- |
लेकिन
अश्वत्थामा,
पांडव-पुत्र
बूढ़े नहीं हैं
निहत्थे भी
नहीं हैं
अकेले भी नहीं
हैं
ख़त्म हो चुका
है
यह लज्जाजनक
युद्ध
अपनी
अधर्मयुक्त
उज्ज्वल वीरता
कहीं और आजमाओ
हे
पराक्रमसिन्धु। |
अश्वत्थामा-
|
प्रस्तुत हूँ
उसके लिए भी
मैं कृतवर्मा
व्यंग्य मत
बोलो
उठाओ शस्त्र
पहले
तुम्हारा
करूँगा वध
तुम जो
पांडवों के
हितैषी हो
|
कृपाचार्य- |
(डाँट कर)
अश्वत्थामा!
रख दो
शस्त्र
पागल हुए
हो क्या
कुछ भी
मर्यादाबुद्धि
तुममें
क्या शेष
नहीं? |
अश्वत्थामा- |
सुनते हो
पिता
मैं इस
प्रतिहिंसा
में
बिलकुल
अकेला हूँ
तुमको मारा
धृष्टद्युम्न
ने अधर्म
से
भीम ने
दुर्योधन
को मारा
अधर्म से
दुनिया की
सारी
मर्यादाबुद्धि
केवल इस
निपट अनाथ
अश्वत्थामा
पर ही
लादी जाती
है। |
कृपाचार्य- |
बैठो,
इधर बैठो
वत्स
हम सब हैं
साथ
तुम्हारे
इस
प्रतिहिंसा
में
किन्तु यदि
छिप कर
आक्रमण के
सिवा
कोई दूसरा
पथ निकल आए |
अश्वत्थामा-
|
दूसरा पथ!
पांडवों ने
क्या कोई
दूसरा पथ
छोड़ा है?
पांडवों की
मर्यादा
मैंने आज
देखी
द्वन्द्वयुद्ध
में,
कैसे
अधर्मयुक्त
वार से
दुर्योधन
को नीचे
गिरा दिया
भीम ने
टूटी
जाँघों,
टूटी
कोहनी,
टूटी गर्दन
वाले
दुर्योधन
के माथे पर
रख कर पाँव
पूरा बोझ
डाले हुए
भीम ने
बाहें फैला
कर पशुवत्
घोर नाद
किया
कैसे
दुर्योधन
की दोनों
कनपटियों
पर
दो-दो नसें
सहसा फूलीं
और फूट
गयीं
कैसे होठ
खिंच आए
टूटी हुई
जाँघों में
एक बार
हरकत हुई
आँखें खोल
दुर्योधन
ने देखा,
अपनी
प्रजाओं को |
कृपाचार्य- |
बस करो
अश्वत्थामा
शायद
तुम्हारा
ही पथ
एक मात्र
सम्भव पथ
है। |
अश्वत्थामा- |
मातुल
फिर तुमको
शपथ है
मत देर करो
शायद अभी
जीवित है
दुर्योधन!
उनके
सम्मुख
मुझको
घोषित करा
दो तुम
सेनापति
मैं पथ
ढूँढूँगा
प्रतिशोध
का। |
कृपाचार्य- |
चलो।
कृतवर्मा
तुम भी चलो |
कृतवर्मा- |
नहीं, मुझे
रहने दो
जाओ तुम। |
|
(कृपाचार्य
और
अश्वत्थामा
जाते हैं)
|
कृतवर्मा- |
चले गए
दोनों?
कायर
नहीं हूँ
मैं
दु:ख है
मुझे भी
दुर्योधन
की हत्या
का
किन्तु
यह कैसा
वीभत्स
आडम्बर
है
हड्डी-हड्डी
जिसकी
टूट गई
है
वह हारा
हुआ
दुर्योधन
करेगा
नियुक्त
इस पागल
को
सेनापति
जिसका
सेना में
हैं शेष
बचे
केवल दो
बूढ़े
कृपाचार्य
और कायर
कृतवर्मा!
यह है
अक्षौहिणी
कौरव
सेना की
परिणति
जाने दो
कृतवर्मा?
मौन रहो
पक्ष
लिया है
दुर्योधन
का
तो अपनी
अन्तिम
साँसों
तक
निर्वाह
करो।
(अकेले
कृपाचार्य
का
प्रवेश)
आ
गये
कृपाचार्य!
|
कृपाचार्य- |
देख
नहीं
सका
मैं
और देर
तक वह
भयानक
दृश्य।
कोटर
से
झाँक
रहे थे
दो
खूँखार
गिद्ध!
इस
झाड़ी
से उस
झाड़ी
में थे
घूम
रहे
गीदड़
और
भेड़िए
जीभें
निकाले
लोलुप
नेत्रों
से
देखते
हुए
अपलक
राजा
दुर्योधन
को।
|
कृतवर्मा- |
(व्यंग्य
से)
फिर
कैसे
सेनापति
अश्वत्थामा
का
अभिषेक
हुआ?
|
कृपाचार्य-
|
बोले
वे
कृपाचार्य
तुम
हो
विप्र
यहाँ
जल
नहीं
है
तुम
स्वेद-जल
से
ही
कर
दो
अभिषेक
वीर
अश्वत्थामा
का
कैसे
उठाऊँ
हाथ
अपना
आशीष
को
झूल
गयी
हैं
बाँहें
कन्धों
के
पास
से
मैंने
निर्जीव
हाथ
उनका
उठाया
आशीर्वाद
मुद्रा
में
किन्तु
घोर
पीड़ा
से
आशीर्वाद
के
बजाय
हृदय-विदारक
स्वर
में
वे
चीख
उठे।
|
अश्वत्थामा -
|
(प्रवेश करते हुए)
पर जीवित रहेंगे वे
उन्होंने कहा है
अश्वत्थामा
जब तक प्रतिशोध का
न दोगे
सम्वाद मुझे
तब तक जीवित रहूँगा मैं
चाहे मेरे अंग-अंग
ये सारे वनपशु चबा जाएँ।
सुनते हो कृतवर्मा
कल तक मैं लूँगा प्रतिशोध
सेना यदि छोड़ जाए
तब भी अकेला मैं... |
कृतवर्मा - |
(लेटते हुए)मैं भी तुम्हारे साथ
सेनापति (ऊब की जमुहाई) |
कृपाचार्य-
|
अब तो कम से कम
विश्राम हमें करने दो। |
अश्वत्थामा- |
(नए स्वर में)
सो जाओ आज रात
सैनिकगण
कल सेनापति अश्वत्थामा
बतलाएगा
तुमको क्या करना है। |
(कृतवर्मा, कृपाचार्य विश्राम करते हैं। अश्वत्थामा धनुष लेकर पहरा देता है)
|
अश्वत्थामा-
|
कितना सुनसान हो गया है वन
जाग रहा हूँ केवल मैं ही यहाँ
इमली के , बरगद के, पीपल के
पेड़ों की छायाएँ सोयी हैं... |
(धीरे-धीरे स्टेज पर अँधेरा होने लगता है। वन में सियारों का रोदन। पशुओं के भयानक स्वर बढ़ते हैं। स्टेज पर बिलकुल अँधेरा। केवल अश्वत्थामा के टहलते हुए आकार का भास होता है। सहसा कर्कश कौए का स्वर और दाई ओर से बिलकुल काले-काले कपड़े पहने कौए की मुखाकृति का एक नर्तक शिशु आता है, पंख खोल कर मँडराता है और दो बार स्टेज पर चक्कर लगा कर घुटनों के बल झुक कर कन्धों पर चिबुक रख कर पक्षियों की सोने की मुद्रा में बैठ जाता है। इस बीच में अश्वत्थामा पर बिलकुल प्रकाश नहीं पड़ता। एक नीली प्रकाश-रेखा इसी पर पड़ती है। फिर स्वर तेज़ होता है और बाई ओर बिलकुल श्वेत वसनधारी एक उलूकाकृति वाला तेज पंजों वाला नर्तक शिशु आता है। कौए को देखता है। सावधान होता है, फिर उल्लसित होकर पंजे तेज़ करता है, पंख फड़फड़ाता है। फिर नयी मुद्राओं में बराबर आक्रमण करने का अभिनय करता है। एक प्रकाश अश्वत्थामा पर भी पड़ता है जो स्तब्ध कौतुहल से इस घटना को देख रहा है।
कौआ एक बार अलसायी करवट लेता है और उलुक को देख कर भी बिना ध्यान दिए सो जाता है। उलूक पहले सहम जाता है, उसे सोया देखकर दो-एक बार सावधानी से आजमाता है कि कहीं कौआ सोने का नाट्य तो नहीं कर रहा है।
फिर सहसा उस पर टूट पड़ता है। भयानक रव, कोलाहल, चीत्कार। दोनों गुँथे रहते हैं। बिलकुल अंधकार। फिर प्रकाश। कौए के कुछ टूटे हुए पंख और उलूक के पंजे रक्त में लथपथ। उलूक उन पंखों को उठा-उठा कर नृत्य करता है। वधोल्लस का ताण्डव।
एक प्रकाश अश्वत्थामा पर। सहसा उसकी मुखाकृति बदलती है और वह ज़ोर से अट्टाहास कर पड़ता है। उलूक घबराकर रुक जाता है। देखता है, अश्वत्थामा अट्टाहास करता हुआ उसकी ओर बढ़ता है। उलूक कटे पंख उसकी ओर फेंक कर भागता है।
अश्वत्थामा कटा पंख हाथ में लेकर उल्लास से चीखता है -)
|
|
|
अश्वत्थामा-
|
मिल गया!
मिल गया!
मातुल मुझे मिल गया! |
(प्रकाश होता है। वह रक्त-सना कटा पंख हाथ में लिये उछल रहा है। दोनों योद्धा चौंक कर उठते हैं
और कृतवर्मा घबरा कर तलवार खींच लेता है।) |
कृपाचार्य- |
क्या मिल गया वत्स? |
अश्वत्थामा-
|
मातुल!
सत्य मिल गया
बर्बर अश्वत्थामा को। |
कृतवर्मा-
|
यह घायल कटा पंख |
अश्वत्थामा-
|
जैसे युधिष्ठिर का अर्द्ध सत्य
घायल और कटा हुआ! |
कृपाचार्य-
|
कहाँ जा रहे हो तुम? |
अश्वत्थामा-
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पांडव शिविर की ओर
नीद में निहत्थे, अचेत
पड़े होंगे सारे
विजयी पांडवगण! |
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(अपना कमरबन्द कसता है) |
कृपाचार्य-
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अभी?
बिलकुल अभी
वे सब अकेले हैं
कृष्ण गए होंगे हस्तिनापुर
गान्धारी को समझाने
इससे अच्छा अवसर
आखिर मिलेगा कब? |
कृतवर्मा- |
यह सेनापति का आदेश है? |
अश्वत्थामा-
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(बिना सुने)
तुमने कहा था
नरो वा कुंजरो वा!
कुंजर की भाँति
मैं केवल पदाघातों से
चूर करूँगा दृष्टद्युम्न को!
पागल कुंजर
से कुचली कमल-कली की भांति
छोडूँगा नहीं उत्तरा को भी
जिसमें गर्भित है
अभिमन्यु-पुत्र
पाण्डव कुल का भविष्य। |
कृपाचार्य- |
नहीं! नहीं! नहीं!
यह मैं नहीं होने दूँगा। |
अश्वत्थामा- |
होकर रहेगा यह!
साथ नहीं दोगे तो
अकेले मैं जाऊँगा
जाऊँगा
जाऊँगा!
(कृतवर्मा पीछे-पीछे सिर झुकाये जाता है) |
कृपाचार्य-
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रुको।
किन्तु
सोचो अश्वत्थामा... |
(अश्वत्थामा बिना सुने चला जाता है। कृपाचार्य पीछे-पीछे पुकारते हुए जाते हैं। अश्वत्थामा! अश्वत्थामा!! अश्वत्थामा !!! यह ध्वनि धीरे-धीरे दिगन्त में खो जाती हैं। तीन रथों की घर्घराहट और घोड़ों की टापें शेष बचती हैं। पर्दा गिरता है।)
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