अनुभूति में
नागार्जुन की रचनाएँ-
गीतों में-
उनको प्रणाम
कालिदास सच सच बतलाना
जान भर रहे हैं जंगल में
पीपल के पत्तों पर
छंदमुक्त में-
बरफ़
पड़ी है
अग्निबीज
बातें
भोजपुर
गुलाबी चूड़ियाँ
सत्य
दोहों में-
नागार्जुन के दोहे
संकलन में-
वर्षा मंगल-
बादल को घिरते देखा है
गाँव में अलाव-
बरफ़ पड़ी है
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बरफ़ पड़ी है
बरफ़ पड़ी है
सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है
सजे सजाए बंगले होंगे
सौ दो सौ चाहे दो एक हज़ार
बस मुठ्ठी भर लोगों द्वारा यह नगण्य शृंगार
देवदारूमय सहस बाहु चिर तरुण हिमाचल कर सकता है क्यों कर
अंगीकार
चहल पहल का नाम नहीं है
बरफ़ बरफ़ है काम नहीं है
दप दप उजली साँप सरीखी सरल और बंकिम भंगी में -
चली गईं हैं दूर-दूर तक
नीचे ऊपर बहुत दूर तक
सूनी-सूनी सड़कें
मैं जिसमें ठहरा हूँ वह भी छोटा-सा बंगला है -
पिछवाड़े का कमरा जिसमें एक मात्र जंगला है
सुबह सुबह ही
मैंने इसको खोल लिया है
देख रहा हूँ बरफ़ पड़ रही कैसे
बरस रहे हैं आसमान से धुनी रूई के फाहे
या कि विमानों में भर भर कर यक्ष और किन्नर बरसाते
कास कुसुम अविराम
ढके जारहे देवदार की हरियाली
को अरे दूधिया झाग
ठिठुर रहीं उंगलियाँ मुझे तो याद आ रही आग
गरम गरम ऊनी लिबास से लैस
देव देवियाँ देख रही होंगी अवश्य हिमपात
शीशामढ़ी खिड़कियों के नज़दीक बैठकर
सिमटे सिकुड़े नौकर चाकर चाय बनाते होंगे
ठंड कड़ी है
सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है
बरफ़ पड़ी है |