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अनुभूति में मुकुट बिहारी 'सरोज' की रचनाएँ-

गीतों में-
एक ओर पर्दों के नाटक
प्रभुता के घर जन्मे
भीड़-भाड़ में चलना क्या
मुझ में क्या आकर्षण
मेरी कुछ आदत खराब है
रात भर पानी बरसता

 

 

एक ओर पर्दों के नाटक

एक ओर परदों के नाटक एक ओर नंगे
राम करे दर्शक दीर्घा तक आ न जाएँ दंगे
अव्वल मंच बनाया ऊँचा जनता नीची है
उस पर वर्ग वर्ग में अंतर रेखा खींची है
समुचित नहीं प्रकाश व्यवस्था अजब अंधेरा है
उस पर सूत्रधार को खलनायक ने घेरा है

पात्रों की सज्जा क्या कहिए, जैसे भिखमँगे।
राम करे दर्शक दीर्घा तक आ न जाएँ दंगे।

नामकरण कुछ और खेल का खेल रहे दूजा
प्रतिभा करती गई दिखाई लक्ष्मी की पूजा
अकुशल असंबद्ध निर्देशन दृश्य सभी फीके
स्वयं कथानक कहता है अब क्या होगा जी के

संवादों के स्वर विकलांगी कामी बेढंगे।
राम करे दर्शक दीर्घा तक आ न जाएँ दंगे।

मध्यांतर पर मध्यांतर है कोई गीत नहीं
देश काल की सीमाओं को पाया जीत नहीं
रंगमंच के आदर्शों की यह कैसी दुविधा
उद्देश्यों के नाम न हो पाए कोई सुविधा

जन गण मन की जगह अंत में गाया हर गंगे।
राम करे दर्शक दीर्घा तक आ न जाएँ दंगे।

१७ अगस्त २००९ 

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