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अनुभूति में मुकुट बिहारी 'सरोज' की रचनाएँ-

गीतों में-
एक ओर पर्दों के नाटक
प्रभुता के घर जन्मे
भीड़-भाड़ में चलना क्या
मुझ में क्या आकर्षण
मेरी कुछ आदत खराब है
रात भर पानी बरसता

 

 

भीड़-भाड़ में चलना क्या

भीड़-भाड़ में चलना क्या?
कुछ हटके-हटके चलो

वह भी क्या प्रस्थान कि जिसकी अपनी जगह न हो
हो न ज़रूरत, बेहद जिसकी, कोई वजह न हो,
एक-दूसरे को धकेलते, चले भीड़ में से-
बेहतर था, वे लोग निकलते नहीं नीड़ में से

दूर चलो तो चलो
भले कुछ भटके-भटके चलो

तुमको क्या लेना-देना ऐसे जनमत से है
ख़तरा जिसको रोज़, स्वयं के ही बहुमत से है
जिसके पाँव पराये हैं जो मन से पास नहीं
घटना बन सकते हैं वे, लेकिन इतिहास नहीं

भले नहीं सुविधा से -
चाहे, अटके-अटके चलो

जिनका अपने संचालन में अपना हाथ न हो
जनम-जनम रह जायें अकेले, उनका साथ न हो
समुदायों में झुण्डों में, जो लोग नहीं घूमे
मैंने ऐसा सुना है कि उनके पाँव गए चूमे

समय, संजोए नहीं आँख में,
खटके, खटके चलो

१७ अगस्त २००९

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