नीति के
दोहे माना मैं डरपोक हूँ
निडर न देखा कोय।
खुली किवाड़ें छोड़ जो घर में सोता होय।।
करते मीठी बात वह सावधान कल्यान।
उन को मुर्गा फाँसना तू भोला इंसान।।
मिलते थे सब शौक से जब हम रहे
जवान।
कपड़े अनफिट हो गए तब के अब कल्यान।।
तेरे हाथों कुछ नहीं सूत्रधार
भगवान।
तू कठपुतली की तरह नाचे जा कल्यान।।
अफ़सर अच्छे बहुत थे बोले हुए
निहाल।
फ़ाइल चलती यों नहीं सौ का नोट निकाल।।
कोई कुछ कहता रहे मत देना तू
ध्यान।
झगड़ा करने की उम्र निकल गई कल्यान।।
नकल न करिये किसी की न ही
पीटिये लीक।
खर्चा उतना कीजिए जितनी हो तौफ़ीक।।
कैसे कहूँ महान मैं जीत गया
शैतान।
जिन बातों पर गर्व था रहीं न वो कल्यान।।
घर का मुखिया कौन है ये जाने
भगवान।
पत्नी के सहयोग से चलता घर कल्यान।।
करते मुझको याद वह पड़ते जब
बीमार।
खोटा सिक्का जब लगूँ रूठें तब सरकार।।
तेरी वंशावली के रहे आख़िरी
जीव।
उनके आगे कुछ नहीं इक आदम इक ईव।।
ज़ीरो और अनंत को करो गुणा
कल्यान।
जो फल निकले देख लो वह ही है भगवान।।
विद्या वह ही सीखना होवे जिसकी
माँग।
वर्ना शाह न बनोगे देते रहना बांग।।
सादा काग़ज़ पूछता नोटों में
क्या बात।
मुहर लगी सरकार की गई बदल औक़ात।।
सब कुछ सुन कर सह गए नहीं हुआ
विस्फोट।
निश्चित है कल्यान यह खाई गहरी चोट।।
दे कर मुझको गिफ्ट तुम करो
हिसाब किताब।
होता यह व्यापार है कहो न प्यार जनाब।।
कैसे कह दें किसी से शर्म करो
श्रीमान।
नंगे खड़े हमाम में सारे ही कल्यान।।
काम, अध्यात्म, अर्थ व
स्वास्थ्य, कला, विज्ञान।
पुराना इन पर लिखा न होय कभी कल्यान।।
बिखरे हैं संसार में भेद बड़े
अनमोल।
न्यूटन से कुछ लोग हैं लेते उनको खोल।।
उम्र हमारी ढल गई लेटे हो
बीमार।
बेटा आया पूछने बन के दुनियादार।।
भूखों को बतलाइए लगे हमें भी
भूख।
इक तरफ़ा बहती नदी जल्दी जाती सूख।।
आँसू का घर नयन है घर में सुख
से सोय।
दुख में घर से निकलकर देता पलक भिगोय।।
ज्यों छोटे से बीज में रहता
पूरा पेड़।
तेरे में ब्रह्मांड है मिले न जिस्म उधेड़।।
मुर्गी कैसे दूध दे बकरी कैसे
बाँग।
जो कुछ जिसके पास है वह ही उससे माँग।।
कहते सच का साथ दो दो तो कहें
हजूर।
चला न मेरे साथ क्यों अब रह मुझसे दूर।।
कैसे बोलें आपसे कर ऊँची आवाज़।
न हिम्मत है न हौसला आँखों बसा लिहाज।।
अपना अपना देखिए कहते हैं वो
लोग।
जिन की आता समझ में महँगा है सहयोग।।
1 सितंबर 2007 |