शहरों की
चकाचौंध
शहर में
इतनी रौशनी क्यों कर दी
कि लोग अपनी राहें ही भूल गए।
वो गलियाँ--
वो चौबारे
जो पहचान थी अपनी राहों की
क्यों ख़त्म कर दी?
कम करो ये रौशनी
और
देखने दो मुझे
वो बुझे चेहरे जो छिपे हैं
इसके पीछे।
मुझे इतनी रौशनी
मत दिखाओ
कि आँखें चुन्धियाँ जाएँ।
और
मैं भूल जाऊँ अपनी ही पहचान।
यहाँ से निकल
कुछ और देख ही न पाऊँ।
न जान पाऊँ कि
मेरे शहर के लोग किस हाल में
घुट घुट कर
जी रहे हैं ज़िन्दगी।
काश! तुम सुन सकते
मेरी आवाज।
कुछ रौशनी उनको भी दे दो उधार।
१० जून २०१३ |