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सवालों के भँवर में
उलझ जाती हूँ, कई बार
धर्म- चक्र की धुरी पर राजनीति का खेल-
शुभ्र वस्त्रों के पीछे काले कारनामे।

न अंतर है, गाँव- शहर का
न गोरे- काले का
फिर भी निहत्थे, अभ्यास- रहित भोले जनसमूह पर
बरसाए जा रहे तीर।
भूख से तड़पते-
भूकंप से काँपते
महामारी से जूझते निरीह जीव।

लेकिन, ये वोट की राजनीति करते
असंख्य काले घोड़ों की डोर थामे
ढूँढते उन्नति का मार्ग
और
करते वादों के बुलंद शोर
टूटती आस्था, बिगड़ती व्यवस्था पर-
निलंबन का कोई डर नहीं
ये मुद्रापति, नीति नियंता
अपनी कुर्सी लिये अमर हैं।

२४ सितंबर २००६

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