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बरखा बहार
बरस आ, ओ बरखा बहार
जीवन रस की फुहार
जल रहा संसार बन दावानल।
आसमां में टकटकी लगाए
आनंद की फुहार को
चूमने को है बेताब
ग्राम-अंचल-वासिनी बहुएँ।
जुती हुए धरा से
आ रही है सोंधी खुशबू-
हरियाली से भर जाने को
भोले किसान की हँसी छुपी है-
तेरे ही जीवनदायी रस में।
नाच रहा वन में मयूर
सावनी झूले के साथ।
प्रणयी जोड़े भी तरस रहे
स्वाती बूँद, दामिनी नृत्य और
बादल की अठखेलियों की आस में
अब तो बरस, ओ बरखा बहार।
२४ सितंबर २००६ |