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अनुभूति में इंदुकांत शुक्ल की रचनाएँ—

मुक्तछंद में—
अनुत्तरितः क्यों होती है रात

उस जगती हित

गीतों में-
जीवनरूपी ज़हर पिया है
दिशा कौन वह

संकलन में—
दिये जलाओ–
प्रदीपमाल
          ललित वसुंधरा
ममतामयी– स्वरगंगा

 

उस जगती हित

जहाँ विषमता से हिंसा से मनुज न हारा
जहाँ न दस्यु लूट पाएं श्रम धन संसाधन

जहाँ न धर्षित विश्व निरंतर युद्धों द्वारा
जहाँ न अंतरिक्ष हो संगर का रक्तांगण
बर्बर दुराचार करता हो जहाँ न शासन

किसी राष्ट्र का ध्वंस न विक्रय और विभाजन
जपे मंत्र 'जनतंत्र' न कोई वधिक, दासता
को प्रभुता–पर्याय मुक्ति का कहे प्राक्कथन

जहाँ धर्म का नैतिकता का नाम ले सके
कभी न कोई राष्ट्रद्रोही शत्रु विदेशी
जहाँ पाप को पुण्य विभव का नाम दे सके

कभी न आक्रांता संत्रासी सत्तान्वेषी
आओ हम सब उस जगती हित उद्यमरत हों
दैत्य दंभ को ललकारें सन्नद्ध सतत हों

१ अप्रैल २००५

 

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