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उस जगती हित
जहाँ विषमता से हिंसा से मनुज न हारा
जहाँ न दस्यु लूट पाएं श्रम धन संसाधन
जहाँ न धर्षित विश्व निरंतर युद्धों द्वारा
जहाँ न अंतरिक्ष हो संगर का रक्तांगण
बर्बर दुराचार करता हो जहाँ न शासन
किसी राष्ट्र का ध्वंस न विक्रय और विभाजन
जपे मंत्र 'जनतंत्र' न कोई वधिक, दासता
को प्रभुता–पर्याय मुक्ति का कहे प्राक्कथन
जहाँ धर्म का नैतिकता का नाम ले सके
कभी न कोई राष्ट्रद्रोही शत्रु विदेशी
जहाँ पाप को पुण्य विभव का नाम दे सके
कभी न आक्रांता संत्रासी सत्तान्वेषी
आओ हम सब उस जगती हित उद्यमरत हों
दैत्य दंभ को ललकारें सन्नद्ध सतत हों
१ अप्रैल २००५
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