|
जीवनरूपी ज़हर पिया है
सहसा सिहर सिहर उठता है मेरा तन–मन
जैसे तुमने शायद मुझको
याद किया है
किन जन्मों का तुम से है मेरा क्या नाता
नहीं जानता, नहीं किसी को समझा सकता।
लेकिन कोई क्षण तुम से न रिक्त रह पाता
यह धुंधुआती आग किसी विधि बुझा न सकता।
जब मेरी आंखों में उतरे, विहंसे हो तुम
जैसे मैंने पल भर में युग
अयुत जिया है।
तेरह नदियों सात सागरों पार दूर हो
भेंट न तुमसे जीवन की सीमा में, तो क्या?
स्पर्श सुरभि औ' स्मित मुक्ता जो लुटा गए हो
उसने किया ज़िंदगी प्रमुदित, मृत्यु शोभना।
कभी बांह में तुम को ले कर मैं समृद्ध था
यही सोचते जीवन रूपी
ज़हर पिया है।
९ फरवरी २००५
|