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दीपावली महोत्सव
२००४

दिये जलाओ
संकलन

दीपावली के दोहे

 

दीवाली के संग ही आई देखो ईद
भाईचारे प्रेम की फिर से जगी उमीद

धर्म पर्व पर जब चढे राजनीति के रंग
दीवाली फीकी लगे ईद लगे बदरंग

ईद दिवाली पर्व का पावन यह पैगाम
मिलकर खुशियाँ बाँटना प्रेम न हो बदनाम

दिल में जागे स्नेह अरु गले मिले जब प्रीत
वही दिवाली जानिए यही ईद की रीत

पगी स्नेह में सेंवई गुझियाँ भरे मिठास
खुशी मनाएँ हम सभी क्यों कर रहें उदास

अपने प्रिय के संग ही मने दिवाली ईद
चाँद बहाने ही सही तेरा मेरा दीद

बाजी हारे जीतकर जीते बाजी हार
बाजी खेलो प्रेम की जीवन में इकबार

दीप जले तोरण सजे बँध गए बंदनवार
रंगोली के रंग में निखरे आँगन द्वार

त्यौहारों के दौर में ऊँचे चढे बज़ार
महगाई के तर्ज पर बढ़े हमारा प्यार

—सत्यनारायण सिंह

शुकामना

आज का दीपक प्रखर हो
विश्व में नवज्योति भर दे
माँगता प्रभु से यही मैं
हर हृदय में प्रेम भर दे
हो दिवाली की मेरी शुभकामना
स्वीकार सबको
आज ज्योर्तिरूप रख माँ
हर तिमिर में ज्योति कर दे
— भगवत शरण श्रीवास्तव 'शरण'

ललित वसुंधरा

लालसा–लसी ललित वसुंधरा
आज कर रही नवल सिंगार है
मणि जड़े वसन पहन गगन खड़ा
हाथ में प्रतीक्षमान हार है
अंब सी उदार आज है अमा
डालती विशाल तम–वितान है
ज्योतधार में नहा रही धरा
यह मिलन पुनीत है महान है
इस मधुर प्रसंग में, उमंग में
शोभना सहेलियाँ समीप हैं
हैं सहास कर रहीं ठिठोलियाँ
दीप्त यौवना बनी प्रदीप हैं।
लोकवत्सला उदार भूमि पर
जग कृतज्ञ ज्योति-पुष्प डालता
या कि अतल से दहेज में विपुल
रत्न शेषनाग है उछालता?
सुंदरी नवीन चिर तरुण धरा
है अगाध साध प्राण में लिए
कामना युगोपरान्त है फली
है सुरा पिए हुए इसीलिए।
स्वर्णवर्ण देह के प्रकोष्ठ से
अंग–दीप झाँक लें इधर–उधर
क्या करे प्रवीण कामिनी धरा
यदि रहें न वस्त्र, जाएँ गिर बिखर?
आज है उछाह, मुक्त पंथ है
स्वर्ण पुष्प से सजा, बिछा, भरा
एक ओर मुक्तपाश व्योम है
है इधर धरा अनूप अप्सरा।

—इंदुकांत शुक्ल

    

 

 

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