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दिशा कौन वह
कभी फूल सी
हँसी तुम्हारी खुशबू बन फैली
मेरे कमरे, मेरे परिसर को
करती उपवन
स्मरण – संचरण
और संवरण दोनों में छाए
तुम्हें भूलना अप्रिय भी है
और असंभव भी
कभी गूंजती गली जहाँ से
मुझे बुलाते तुम
जैसे कंठ तुम्हारा अमृत
बरसाता अब भी
प्रश्न तुम्हारे,
बोल तुम्हारे जब मुखरित होते
कमरे की छत हो जाती थी
तारों–भरा गगन
चलता हूँ तो लगता
जैसे साथ चल रहे हो
आँखों में कौतूहल कितना
पावों में उत्साह
कहाँ पता था बड़े प्यार से
मुझे छल रहे हो
सुख का मृगजल छोड़ गए हो
दे कर अंतर्दाह
दिशा कौन
वह जो लाएगी पुनर्वार मुझ तक
वह मोहन मुस्कान तुम्हारी,
वे मधु भरे वचन?
९ फरवरी २००५
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