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स्वेटर
जिस स्वेटर को
पहना करता था मैं
कड़कड़ाती सर्दियों में
इस बार उसके बंध
खुलने लगे हैं
जिन सलाइयों से तुमने घर मिलाए
और उनींदी पलकों से
खुशी के झरने बहाए
सत्य है कि तुम्हारा मर्म स्पर्श किया है
मैंने बार-बार
आज तुम नहीं हो पास
और न तुम्हारी चूडियों की खनक
इतनी दूर तुमसे
सिमट कर ठिठुरना
फिर ढूंढना ऐसी सुई को
जो मिलाए खुले बंध
उसी स्वेटर को
पहना करता हूँ मैं आज भी
इसलिए कि उसमें बसी है तुम्हारी सुगंध
संचित है वही
स्निग्घ स्नेह, वैसी ही तरलता
और वही आभास जिस स्वेटर को
पहना करता था मैं
फिर उसे कैसे अपने से विलग कर दूँ
24 सितंबर 2007
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