|
पहाड़ और मैं
घने कोहरे के बीच
मानों खड़ा हो जाता है यह पहाड़
दृष्टि को बाँधते हुए
सींग के उगने जैसे
बढ़ने लगता है वह
और फिर मुट्ठी भर मुस्कान
समेटने की अभिलाषा में दिन भर,
रेतीले टीलों पर टिका
उजाले की कतरनें
खोजता फिरता हूँ
किन्तु पलक झपकते बहा देती है
आँसुओं की धार
धुंध में डूब जाते हैं
स्मृतियों के मैदान
और धीरे-धीरे
मन के दरवाज़े को लाँघ
अनवरत बढ़ रहा होता है पहाड़
घिरे आकाश के बीच
पहाड़ की चोटी से सटा
बादलों को निचुड़ते देखता हूँ मैं
और भयभीत हो
बरसती बूँदों से
तरबतर हो जाता हूँ।
24 सितंबर 2007
|