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गति
एक ही गति से
बदलते हैं दिन रात
और यह काया
समय के रथ के साथ
कुछ दूर करती है कदमताल
फिर दरिया की नौका-सी
डगमगाती है
परिवर्तन की इस त्रासदी में
शब्द डरे-डरे गुमसुम हैं
शब्द दर शब्द पीड़ित हैं
सुने-सुनाए सुझावों से सराबोर हैं
बातों का सिलसिला
सुबह शाम चलता है
कुशलता पल-पल की
तसल्ली का आदान-प्रदान
यही होता है आजकल
दर्द कभी बढ़ता है, कभी घटता है
ब्लडप्रेशर की तरह
और दिन का प्रारब्ध
धड़कनों के वेग को सुनता है
मन घबराता है
समय दौड़ता है अपनी गति से
और पीछे छोड़ देता है मुझे
अपने हाल पर।
24 सितंबर 2007
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