अनुभूति में
विनोद कुमार
की रचनाएँ—
छंदमुक्त में-
आत्मकथ्य
कैसी आग
पूर्णिमा की रात
पृथ्वी–मंगल–युति (२००३) के प्रति
हाँफता हुआ शहर
हैवानियत के संदर्भ में
क्षणिकाओं में-
विनिमय
काला बाज़ार
उषःपान
हास्य–व्यंग्य में-
नकली
चोर
अपने पराए
संकलन में-
नया साल–अभिनंदन
अभिनंदन २००४
|
|
पूर्णिमा की रात
देखा मैंने उस रात
सरोवर–तट पर
पारदर्र्शी दर्पण–सी
शुभ्र–शीतल जल में
चांद उतर आया था
कुमुदिनी की पंखुड़ियों के
कोमल स्पर्श से
अपने बदसूरत दाग मिटाने को चुपचाप ।
नीरव निर्जन प्रदेश में
मृदुहास लिये
चुपके से
जल विहार करते चांंद को
निर्वसन देखा था मैंने
शुभ्र ज्योत्स्नास्नात ।
रात के अंतिम पहर में
सुवासित कुंज की ओट से
चुपचाप जाते देखा–
मैंने सुन ली थी उसकी पदचाप ।
२४ दिसंबर २००३ |