अनुभूति में
विनोद कुमार
की रचनाएँ—
छंदमुक्त में-
आत्मकथ्य
कैसी आग
पूर्णिमा की रात
पृथ्वी–मंगल–युति (२००३) के प्रति
हाँफता हुआ शहर
हैवानियत के संदर्भ में
क्षणिकाओं में-
विनिमय
काला बाज़ार
उषःपान
हास्य–व्यंग्य में-
नकली
चोर
अपने पराए
संकलन में-
नया साल–अभिनंदन
अभिनंदन २००४
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पृथ्वी–मंगल–युति (२००३) के प्रति
भागी जाती हवा से पूछा –
हे चंचला! क्यों उड़ी जाती हो ?
किधर को उड़ी जाती हो ?
किससे मिलने को आतुर मन जाती हो ?
रूकी नहीं तनिक भी
खिलखिलाती सरपट भाग गयी ।
धरती की हरियाली से पूछा –
अहा! कितनी मोहक तेरी जवानी ?
क्या मुझको देख विहँस रही हो ?
शरमा गयी! चुपचाप खेतों में दौड़ गयी ।
भागी जाती डैनों से आकाश नापती
क्यों कलरव करती जाती हो ?
इतना–सा ही जब चिड़ियों से पूछा –
किसने तुमको इतना सुंदर रूप दिया ?
किसने तुमका उड़ना सिखाया ?
थमी नहीं तनिक भी
पलक झपकते नीले नभ को नाप चली,
बस उसकी कलरव–अनुगूँज ही मेरे पास रही ।
‘अंगारक’ संग चमकते अमावस के तारों से पूछा – क्यों रात–रात भर
टिमटिमाते हो ?
दिवस हुए कहाँ छुप जाते हो ?
क्या चंदा–संग मिल सूरज से
अबूझ आंख–मिचौनी करते हो ?
प्रत्युत्तर में बस आंखों में उसने सुरमई भर ली,
मंगल की चमक बढ़ और चली ।
गहरी काली निशा में दूर से आई एक आवाज ॐ
बोल उठा एक उलूक ही तत्क्षण –
‘कोऽहं – कोस्त्वं ……… कोऽहं – कोस्त्वं’ ‘मैं – मैं’ क्यों
करता तू हरदम ।
२४ दिसंबर २००३ |