अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में डा. वंदना मिश्रा की रचनाएँ—

छंदमुक्त में--
क्रूर हास्य
दो चित्र
वो गीत
मनराखन बुआ
माँ चली गयी

 

मनराखन बुआ
         
मनराखन बुआ, ऐसा ही नाम सुना था
उनका बचपन से
पर उनके सामने बोलने पर डाँट पड़ी
तब समझ आया कि ये उनका असली नाम 
नहीं था
असली  नाम क्या है बुआ 
पूछने पर शरमाई थी वो 
'का करबू बच्ची जाए दा'
अम्मा, चाची की 'जिज्जी'
और भाइयों की' बहिन'
खोज खोज खाज कर पता लगा 
सुरसत्ती (सरस्वती) नाम है

फूफा कभी गए थे कमाने  तब के बम्बई 
और कमाते ही रहे 
बुआ मायके की ही रह गई
ससुर के विदाई के लिए आने पर
घर की चौखट पकड़ 
बोली "चार भाई की जूठी थाली
धो कर भी पी लूँगी तो पेट भर जाएगा 
बाबा मत जाने दो 
किसके लिए जाऊ"
ससुर अच्छे दिल के थे 
बोले" ठीक है बहू पर
काज परोजन आना है तुम्हें"

तब से सास से लेकर 
चार देवरानी, तीन जिठानी, दो ननद 
सबकी जचगी में बुलाई गई बुआ
शादियों में  बिनन -पछोरन बिना उनके कौन करता
हाँ नई बहू और दामाद से पुरानी साड़ी में
कैसे मिलती सो दूर ही रखा गया 
फिर काम से फुरसत कहाँ थी
अम्मा -चाची भी न
जाने क्यों नाराज़ हो जाती हैं 
ये भी कोई बात है?

हाड़ तोड़ काम किया तो पेट भर खाया 
पहुँचा दी गई फिर मायके
'हिस्सा' जैसा शब्द सुना ही नहीं था उन्होंने
उनके बच्चों की हर जरूरत पर पहुँची मनरखने 
और नाम ही 'मनराखन' पड़ गया

मज़ाक का कोई असर नहीं होता था उन पर 
एक दिन बोली
"विधना जिनगी ही मजाक बना दिहेन
त का मजाक पर हँसी का रोइ बच्ची!"
हर ज़रूरत पर मन रखने पहुँची बुआ का 
'मन रखने' भी कोई नहीं आया 
अंत समय में।

१ दिसंबर २०२३

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter