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अनुभूति में डा. वंदना मिश्रा की रचनाएँ—

छंदमुक्त में--
क्रूर हास्य
दो चित्र
वो गीत
मनराखन बुआ
माँ चली गयी

 

क्रूर हास्य

तबले पर थाप पड़ती थी
और हारमोनियम से
स्वर निकलने वाला होता था
कि हम सब हाथ का खाना छोड़
भाग जाते थे रामलीला देखने
सामने के मैदान में।

उन दिनों न हमें नींद सताती थी
न भूख
मां की जिद्द या प्रेम कि वह
जल्दी ही बना देती थी खाना
हम सबके लिए
अपनी -अपनी
चादर, बोरी, चटाई लिए

जगह की लड़ाई लड़ते हम
हथिया लेते थे गज़भर जगह
घर वालों के लिए

वह समय
समय के हिसाब से 2 -3 घंटे
पर आनंद के हिसाब से
'ब्रह्मानंद 'कहा जा सकता था।

उन दिनों ज़रा सी भी
वितृष्णा नहीं होती थी
राम लक्ष्मण के लिपे पुते चेहरे
और अटपटे संवाद सुनकर।

लाल फ़ीते बांधे नर्तकों के नृत्य
हास्यास्पद नहीं लगते थे
न घिन आती थी मैले-कुचैले
लोगों से
सट कर बैठने में।

हम कुछ समय बाद भी जाते थे
रामलीला देखने
पर अब जरा सी चूक भाषा की
हँसा हँसा कर पेट में बल डाल देती थी
यानि की कमियाँ ढूँढना ही
अब हमारा मनोरंजन बन गया था

अब साड़ी फ़हराकर नदियों का
बोध कराने वाले दृश्य
हमें खूब हँसाते थे

यानि साधन हीनता हमें
आनन्दित करती थी
हमने हँसने के लिए
इतने क्रूर साधन क्यों चुन लिए

क्या हास्य के लिए
इस हद तक क्रूर होना जरूरी है।

१ दिसंबर २०२३

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