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अनुभूति में डा. वंदना मिश्रा की रचनाएँ—

छंदमुक्त में--
क्रूर हास्य
दो चित्र
वो गीत
मनराखन बुआ
माँ चली गयी

 

माँ चली गई

पिता माँ से १४ वर्ष बड़े थे 
बिस्तर पर जल्दी पड़ गए

माँ  उन्हें इस तरह
देख-देख  सूखती 
जैसे घात लगाए बिल्ली से 
कबूतर
ठंडी साँस ले कहती पता नहीं 
कौन सा दिन देखना पड़े!

पिता केवल दो रोटी खाते
माँ रोटियाँ थोड़ी मोटी बना देती
पिता  इसे माँ की चालाकी कह 
गुस्सा होते
माँ उनकी एक आवाज़ पर
उठ जाती थी
लाख थकी होने 
और हमारे रोकने पर भी
पिता की भूख का अंदाज़ था उन्हें
माँ चली गई पिता से दस वर्ष पहले

पिता ने डॉक्टर के कहे पर भी 
भरोसा नहीं किया
बार-बार माँ की कनपटी पर हाथ रखते
कहते "अभी  जी रही हैं।"
माँ जानती थी
पिता का प्यार

हम तब जान पाए
जब नहीं रही माँ ।
देखा
एक बूढ़ा
बच्चा कैसे बन जाता है !
क्षण भर में

आखिरी बार सिंदूर पहनाते समय
बिलख उठे 
बोले- "फिर मिलना"
माँ के दोनों हाथों में लड्डू 
रख दिया गया
और पिता का हाथ खाली हो गया।
मैंने तब जाना कि
ये सिर्फ़ मुहावरा नहीं है।
लाल चुनरी में सजी माँ को 
उठा लिया लोगों ने।

लौटे माँ को छोड़ तो पिता भी
कहीं छूट गए थोड़े से।

माँ! उठो न 
पिता को किसी ने 
अभी तक 
कुछ नहीं खिलाया।

१ दिसंबर २०२३

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