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बरसात
बरसात अब थम चुकी है
कैसी नमी सी छाई हुई है हर तरफ
और उस पर ये रात का सन्नाटा ,
कितना मुसलाधार बरसा था पानी
हो धरती पे जैसे प्यासी, अतृप्त आत्माएं ,
पर क्या तृप्ति मिली ?
बरसात सुहानी होती है जब होती है क्षणिक
पर यह क्या श्रृष्टि है,
सब कुछ असंतुलित क्यूँकर -
किसान की धरती को मिला पानी अत्याधिक
फसल के नष्ट होने से भूखों मरेंगे लोग
परन्तु क्या हुआ, कम से कम
पीने को तो पानी मिला,
पर क्या तृप्ति मिली ?
फिर यह वेदना क्या है,
बाहर अँधेरे में झींगुरों का चिल्लाना क्यूँ,
इतना करुनामय विलाप
रोजाना की तो यह आवाज़ नहीं ;
मनुष्य तो चुप है, कितना शांत
अपने आप को छलता हुआ
उसके आँगन के पौधे में पानी
उसे झूठा आश्वासन देता हुआ,
पर क्या सचमुच तृप्ति मिली ?
मूक है, बरसात में डूबता भीगता मनुष्य
बोले भी तो क्या बोले ?
गंगादीन का मकान बह गया,
बह गयी पेढ़ के नीचे की
रहीम की नाई की दुकान ,
बूढ़ी अम्मा न पीला सकेगी चाय
बह गयी उसकी दियासिलाई.
इन सबसे बेखबर हम-तुम सो रहे हैं
संतुष्टि की चादर ओढ़े
स्वप्न में भला कौन पूछेगा
क्या सचमुच तृप्ति मिली ?
अब मच रहा है किसानो का हाहाकार
सुनाई दे रही है झींगुरों की चीत्कार
गूँज रहा है इनका रुदन
उजड़ गया है इनका आशियाना
कंही दूर कवि कोई लिख रहा है
बरसात पे इक मधुर गाना.
इस गरीबी और सूखों के देश में
आवश्यक नहीं की बरसात का सिर्फ गुणगान हो
जंहा तन न ढाका हो, पेट न भरा हो
वंहा आवश्यक है की अछे बुरे की पहचान हो.
उठ मनुष्य उठ
मत बैठ बन मूक दर्शक
अरे तू कुछ तो कर,कुछ तो कर
आगे बढ़ हक के लिया लड़ .
समझ तो सही की कभी कभी
अधिक ख़ुशी ही ग़म भी लाती है ,
बरसात फलदायक है जीवनदायिनी है,
परन्तु यह बरसात ही तो है
जो सैलाब भी लाती है,
परन्तु यह बरसात ही तो है
जो सैलाब भी लाती है..... ४ जनवरी २०१० |