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मैंने मन को बाँध लिया है
मैंने तन को साध लिया है
अपने जीवन की ऊहापोह को
मैंने अब जान लिया है।
कठिन नहीं था ऐसा करना
जानता था सदियों से
प्रयासों में कमी थी मेरे
वर्ना बात सरल थी।
स्वयं से बाहर खुशियाँ खोजता
तड़पता, तड़पाता
आघात करता, आहत होता
बेचैन रहता
अनमना-सा, बुझा-बुझा
कुछ मिले कैसे
जब खोज का पता न था?
दिवस, मास, बरस बीते
करने पड़े कितने युद्ध
कुछ हारे
कुछ जीते,
जूझता रहा
कभी राह पाई
कभी खो गई दिशा,
कभी सुलझाया कुछ
कभी सबकुछ उलझा लिया।
जीवन बीतता गया
बीतता गया
पर एक खराश
ज्यों की त्यों बनी रही।
तब लगा
जब इच्छा नहीं कुछ
कोई आकांक्षा नहीं
न अभीप्सा ही मेरी
बिन लालसा लिए
यह दौड़ना कैसा?
यह जीवन क्या?
कैसा? क्यों? क्या?
प्रश्न ही प्रश्न
पर उत्तर कहीं नहीं।
मैंने विचार किया
विचार किया तो थमा
और थमने से बात बनी,
फिर शुरू हुई तपस्या
स्वयं के भीतर झाँकने की प्रक्रिया
आत्म - अवलोकन
चिंतन और मनन।
थमा
तो उत्तर मिला
और मिली
संतुष्टि
शान्ति
शान्ति, शान्ति, शान्ति।
४ जनवरी २०१० |