कभी देखना
चाँदनी रात में तारों को
आकाश की चादर में
अठखेलियाँ करते हुए
और महसूस करना
अपने अरमानों को मचलते हुए
कभी देखना और सुनना
अलसाई-सी किसी दोपहरी में
गूँजती सन्नाटे की आवाज़
तुम्हें बुलाती हुई
निद्रा से जगाती हुई
कभी देखना
तेज़ बहती नदी में
अपने ठहरे हुए अक्स को
तुम्हें निहारते हुए
राहत प्रदान करते हुए
कभी देखना
चिड़ियों के बच्चों को
हरी घास पर फुदकते
तुमसे बिल्कुल बेखबर, निडर
अपनी मनमानियाँ करते
कभी देखना
किसी गिलहरी को तेज़ी से
पेड़ की टहनियाँ चढ़ते उतरते
तुम्हें भी एक
उमंग में भरते हुए
कभी देखना
मूसलाधार बारिश से डरकर
खिडकी के पास छिपी बिल्ली को
तुमसे उसे न भगाने का
आग्रह करते हुए
कभी देखना
किसी फूल के ऊपर पड़ी
ओस की बूँद को
गुनगगुनाते हुए
मंद-मंद मुस्कुराते हुए
उस उगते और डूबते हुए
सूर्य को भी देखना
जो तुम्हारा प्रहरी-सा बना
सदा तुम्हारे साथ है
तुम्हारा हमसाया बना
खिलखिलाते हुए
सोचता हूँ क्या तुम
ये सब देखे भी पाओगे कभी
या यों ही व्यस्त रहोगे
अपनी मशीनी ज़िन्दगी में,
क्या तुम्हें कभी समय मिलेगा
कि तुम मेरे साथ आओगे
या यों ही तुम कल कल करते रहोगे
अपनी छोटी-सी ज़िन्दगी में
पर तुम देखना
मैं तुम्हें याद दिलाता रहूँगा
अपने गीतों के बोलों के ज़रिए
क्योंकि
मेरी कविता के लिए आवश्यक है
कि तुम यह सब देखो
और मैं देख पाऊँ तुमको
जीवन के सही मायने जानते हुए
दिमाग के परे
सिर्फ़ अपने मन की बातें मानते हुए
मैं तुम्हें याद दिलाता रहूँगा
तुम देखना।
४ जनवरी २०१० |