ज़मीन
मेरी कविताओं की ज़मीन
उस आदमी के भीतर का धीरज है
छिन चुकी है
जिसके पाँवों की ज़मीन
भुरभुरा उर्वर किए हैं
इस ज़मीन को
हरियाते घावों की दुखन
इस ज़मीन का रंग
खून का रंग है
इस ज़मीन की गंध
देह की गंध है
इस ज़मीन का दर्द
आदमी का दर्द है
इसलिए
कुछ नहीं होता जब
ज़मीन पर
तब- दर्द की फसल होती है
और- मैं इसी फसल को बार-बार काटता हूँ
हर बार बोता हूँ।
इस तरह आदमी के रिश्ते को
कविता में ढोता हूँ
और
आदमी को कभी नहीं खोता हूँ।
१ अक्तूबर २००६
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