चाहता हूँ जब
चाहता हूँ जब कभी मैं
सुगंध लिखना फूल की
भर लाते हैं
शब्द जाने कहाँ से
हज़ारों-हज़ार फूलों की घुटन
चाहता हूँ जब कभी मैं
लिखना
धूप की गुनगुनाहट कविता में
अजीब-सा शोर बनकर रह जाती है
धूप में चटकते
माटी के बरतनों की टूटन
चाहता हूँ कि एकटक ताकता रहूँ
खिले-खिले ये इंद्रधनुष
हर एक रंग लेकिन
कुछ ऐसा खेल खेलता है आंखों में
कि भरने लग जाती है चुभन
और
लिख नहीं पाता हूँ
फूलों की सुगंध
धूप की गुनगुनाहट
इंद्रधनुष के रंगों की खिलन।
१ अक्तूबर २००६
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