घर
मैंने एक घर को संसार बसाते देखा है
दीवारों को छत का भार उठाते देखा है।
आँगन में फुलवारी हो
ममता की एक क्यारी हो
रिश्तों की सोंधी महक रहे
बरगद की सेवा न्यारी हो।
ऐसे ही एक आँगन को मैंने
शाम ढ़ले श्रृंगार रचाते देखा है।
दीवारें हों बाहें थामे
एक दूजे को रहे सँभाले
हँसते-हँसते एक दूजे संग
छत का भार उठाए काँधे
ऐसे ही दीवारों को मैंने
प्यार निभाते देखा है।
द्वार हों पलकें बिछाएँ
इंतज़ार में तकती राहें
खिड़कियाँ खुली हों लेकिन
परदों में खुद को छुपाए
ऐसे ही खिड़की द्वारों को
संस्कार बचाते देखा है।
बचपन खेलों में मगन हो
जोश में जहाँ यौवन हो
बड़े बूढ़े करते हों बातें
बातों में गीता रामायण हो
ऐसे ही एक घर को मैंने
हँसते गाते देखा है।
9 मार्च 2007
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