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अनुभूति में डॉ. शरदिन्दु मुकर्जी की रचनाएँ

छंदमुक्त में-
क्रांति
नयी बिसात
बारिश की बूँदें
सन्नाटा
सावधान

 

क्रांति

तुम कहते हो,
अंतर की ज्वाला
बाहर, चेहरे पर उभर आती है.
हो सकता है
तुमने ऐसा देखा हो –
मेरी दृष्टि
कहीं और विचरण करती
नए पथ पर
नए झरोखों से झाँकती
अंदर महल में –
जहाँ
चीख की स्तब्ध टीस से
प्रस्तर बनी मानवता का
मृतदेह पड़ी है.
बाहर के आँगन में
जलते दीयों से भ्रमित न होना –
नथ – कंगन – कुंडल – हार को
तोड़ गलाकर
दो नयनों के दीये
अब विध्वंसी अंगार बनेंगे
चेत जाओ तुम....!

१ अगस्त २०२२

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