अनुभूति में
डॉ. दिनेश
चमोला शैलेश
की रचनाएँ—
दोहों में-
माँ
कविताओं में-
अनकहा दर्द
एक पहेली है जीवन
खंडहर हुआ अतीत
गंगा के किनारे
जालिम व्यथा
दूधिया रात
धनिया की चिंता
सात समुन्दर पार
पंखुडी
यादें मेरे गाँव की
ये रास्ते
रहस्य
संकलन में-
पिता
की तस्वीर- दिव्य आलोक थे पिता
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जालिम व्यथा
जालिम व्यथा भुलावा देकर, छुड़ा गई है गाँव
महानगर से देखूँ कैसे, वह बरगद की छाँव?
याद बहुत आती है, मुझको माटी आँगन की
रोज लारियाँ मुझे रूलाती, माँ के दामन की
खेतों की, खलिहानों की, उन वन की उपवन की
बचपन के चौपालों की, हा! व्रज के कानन सी
सदा बरसते नयन दुखारे, पाकर पाँव न ठाँव
जालिम व्यथा भुलावा देकर, छुड़ा गई है गाँव
शरद चन्द्रिका कर जाती है, घायल सपनों की
कभी वेध जाती है मन को, पायल अपनों की
मन पाखी तो मर खप कर, दिन रैन बिताता है
किन्तु न पाकर स्मृति शेष, घुटकर रह जाता है
दादी माँ की करूण कथाएँ, लगा न पाती दांव
स्वप्नों में घुटकर रह जाता, है पुरखों का गाँव
बैलों के वे नूपुर-झीगुर, ऊँचे शिखरों के
और गूँजते भवन चूमते भवन मन्दिरों से
कल-कल करती सरिताएँ, औ हँसते पर्वतराज
जाने क्यों बेचैन कर गए, महानगर में आज?
जिसकी रज में लोट-लोटकर, कभी न थकते पाँव
काला पानी आज हो गया, वह स्वप्नों का गाँव!
कौशलपुर की भूमि मनोरम, बसुओं का केदार
बचपन का अब कैसे पा लूँ! वह खोया संसार
जी भर गाती चपल किशोरी, वन कानन के बीच
बार-बार वह स्मृति कौंधती, अश्रु जलद से सींच
टूट चुके हैं पंख पखेरू, औ जीवन की छाँव
कैसे फिर आ लौटूँ तुम तक, हे पुरखों के गाँव?
रोज स्वप्न में आती, दुलराती गंगा की धार
दुखिया झोली में दे जाती, खोया माँ का प्यार
कृषक बंधु भी याद आते हैं, सौंधी महक रूलाती
मरू जीवन में मलय भूमि की, रह-रह याद सताती
हे देवों की भूमि कभी क्या, चूम सकूँगा पाँव?
जालिम व्यथा भुलावा देकर, छुड़ा गई है गाँव
१६ अगस्त २००३ |