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संजय दृष्टि

 

संजय दृष्टि

उम्र की दहलीज़ के किनारे
सिकुड़ी बैठी वह देह
निरंतर बुदबुदाती रहती है,
दहलीज की परिधि के भीतर
बसे लोग अनपढ़ हैं
बड़बड़ाहट और बुदबुदाहट में
फ़र्क नहीं समझते।
मोतियाबिंदु और कालाज़ार के
अंधे चश्मे लगाए
बुदबुदाती आँखें
पढ़ नहीं पातीं वर्तमान,
फलत:
दोहराती रहती हैं अतीत।
मानस में बसे पुराने चित्र
रोक देते हैं आँखों को
वहीं का वहीं।
परिधि के भीतर के लोग
सिकुड़ी देह को धकिया कर
खुद को घोषित कर देते हैं वर्तमान,
अनुभवी अतीत
खिसियानी हँसी हँसता है,
भविष्य, बिल्ली सा पंजों को साधे,
धीरे-धीरे वर्तमान को निगलता है,
मेरी आँखें 'संजय' हो जाती हैं!
देखती हैं चित्र-
दहलीज किनारे बैठे हुओं को
परिधि पार कर बाहर जाते
और
स्वयंभू वर्तमान को
शनै:-शनै: दहलीज़ के करीब आते।

१० नवंबर २००८

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