|
सृजक
स्वर-संधि और व्यंजन
समाज के मूल सृजक हैं
उनके अघोष और घोष में ही छिपे हैं
देश-दुनिया के सारे रहस्य
सघोष के मिलते ही
मूल्य और वजन बढ़ जाते हैं
जहाँ पर प्रकृति के प्राण और अल्पप्राण
महाप्राण से मिलने को आतुर नज़र आते हैं
व्याकुल तत्सम और उपसर्ग
सहज ही हृदय शब्द में समा जाते हैं
ऐसे में तदभव सरीखे तमाम भाव
और अभिव्यक्ति से भरे भौरें की तरह भाषाएँ
बोल उठती हैं
प्रत्यय के प्रगल्भ के निकले परसर्ग
स्वर्ग जाने वालों के मन में एक नए बीज बो देते हैं
समास के समरूप से अवगत होते हुए
संवेदना से सराबोर सृजन के संसार
समूह में हिलते-मिलते हुए शोर करते हैं
समय का पहिया निरंतर घूमता है
छंद के बंद जड़वादी,
दकियानूसी दालानों को फलाँगते हुए
स्वछंद वातावरण में विचरण करने लगे हैं
अनुगामी बनते हुए
रस-अलंकार से सुसज्जित समूह ने
आन्दोलन कर दिया
पुरातन पीढ़ियों के सँजोए धरोहरों को छोड़ दिया
और नए सिरे से
संस्कृति का निर्माण करना शुरू कर दिया
जहाँ से क्षणिकाएँ, हाइकू और फाईकू में तब्दील हुए
समूल जहाँ में फैले विष सरीखे उपादानों से
ऐसा लगा जैसे पृथ्वी को उपकृत कर दिया है
१३ मई २०१३
|