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जंगलों में
घुला ज़हर
जब-जब नौगढ़ के घने जंगल
मेरी स्मृतियों में उगते हैं
अचानक सतपुड़ा के जंगलों की याद हो उठती है
जहाँ मैं ख़ुद को टहलते हुए पाती हूँ
यह सोच रही होती हूँ कि
ख़ूबसूरती को किसकी नज़र लग जाती है
बरबस मन कह उठता है—
दोनों जंगलों में कितनी समानताएँ हैं
ये बिल्कुल सहोदर लगते हैं
(एक ही पेट से पैदा हुए भाई-बहन)
इन्हें नक्सल के नासूर ने नमकीन जल से भर दिया
और वहाँ के लोगों की आँखों में उतर आया है
सागर का सारा का सारा खारा जल
जहाँ वे ख़ौफ़ के साए में जिन्दा हैं
किसी पिंजड़े में क़ैद परिंदे की तरह
जो इंसानों के सामने आते ही सहमे जाते हैं
ज़रा-सी भनक लगते ही हो जाते हैं फुर्र
और आँखें देखती रह जातीं कि आख़िर क्या हुआ
वे विवश हैं जीने को
डर, भय, भूख और यातना के साए में
बूँद-बूँद रिसती जा रही है ज़िंदगी
किन्तु निवारण के रास्ते बंद-से लगते हैं
कभी-कभी तपड़ उठता है मन
पर इस आडम्बरी आवरण को कैसे खुरचें
किस तरह से मासूम मौसम से बच्चों को
ख़ुशी के तरन्नुम सुनाएँ
चिड़ियों के दर्दीले चहकते स्वर को
शबनमी रंगों में तब्दील करें
कुछ भी तो नहीं सूझता है
घिर जाता है एक और भय का बादल
और जंगलों में घुला ज़हर याद आता है
हम अचानक उस बंदूक के आगे आ जाते हैं
जिस पर हमारा नाम तो नहीं होता
मगर हम उसके निशाने पर होते हैं
कभी-कभी नस्तर की तरह चुभता
और कभी फोड़े की तरह टभकता-सा
लगता कि बस अब जी चुके
जीवन के उस वसंत से मिलना हो चुका
जिसे मैंने नहीं चुना था
और औचक सपना टूटते ही
सिर्फ़ इतना याद रहता है—
हम बिस्तर की सिलवटों के जंगल में भटक रहे थे!
१३ मई २०१३
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