अक्षर
मैं एक भ्रूण हूँ!
नारी के गर्भ में पलता बच्चा नहीं
इंसान के उँगलियों के पोरों से खेलता हुआ
एक मासूम हूँ
आड़ी-टेड़ी रेखाओं में आकार पाता हूँ
मन में मचलते भावों के साथ
अभिव्यक्ति के अनूठे अंदाज में
बयाँ होते हुनर की तरह पेश आता हूँ
शब्दों में ढलकर अस्तित्व गढ़ते हुए
संगठन के सौन्दर्य रचते हुए मैं आगे बढ़ता हूँ
वाक्यों के औचित्य से अह्वान के फ़िजा बदलते हुए
ऐसा लगता है जैसे मैं सार्थक हो गया
किसी बड़े होते बच्चे तरह
जो भविष्य निर्माण का आधार है
वाक्यों के वितान में सजते हुए
सफ़ेद पन्नों के काले रंगों में
घुल-मिल कर सुसज्जित हो उठता हूँ
किसी नई दुल्हन की तरह
उसके पैरों में बजते पाज़ेब सरीखे
मेरे सम्बोधन के मर्म महक उठते हैं
जैसे रुनझुन करते वर्ण
किताबों में तब्दील होकर
सागर से गहरे गोते में परिवर्तित हो जाते हैं
लोग जहाँ-जहाँ नज़र दौड़ाते हैं
मेरे ही लहरों के अक्षर लहलहा रहे होते हैं
उस तिरंगे की तरह
जिसे गुलामी के प्रचीर के बाद
फहराते हुए देखने का लोभ संवरण न कर सके।
१३ मई २०१३
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