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अनुभूति में रोली शंकर की रचनाएँ-

छंद मुक्त में-
कैद
मछलियाँ
वो सिलती बटुए
हम स्वतंत्रता में
ये स्त्रियाँ
 

 

ये स्त्रियाँ

ये स्त्रियाँ!
बंजर जमीं पर उग आईं खेतियाँ।
ताज्जुब में हो तुम
जबकि सींचा नहीं था प्रेम से कभी
फिर कैसे उग आईं इतनी बेरियाँ?
जान न पाए तुम!
कब खींच लाईं जड़ें अपना समन्दर
अंदर ही अंदर।
बढ़ती रहीं/झरती रहीं
आँचल में समेट कर अनगिनत मोती।
जादू था या चमत्कार
आस्था थी या विश्वास।
इन्होंने पैदा कर दीं पंखों वाली बेटियाँ।
वही बेटियाँ!
जिन्हें नहीं चाहिए तुम्हारी जमीन हवा और पानी।
इनका अनुबंध हुआ है बादल से अभी अभी
आकाश में आवंटित जमीं इनके नाम की
देखना तुम महकेंगी अब सावन में सूखी सारी डालियाँ।
देखते रहना तुम टुकुर- टुकुर
तुम्हारी पकड़ से दूर बहुत दूर
तुम्हारी कल्पना से ऊपर बहुत ऊपर
गूँजेंगी
अब हज़ार-हजार किलकारियाँ।

१ दिसंबर २०१८

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