अनुभूति में
रवीन्द्र बतरा की
कविताएँ-
छंदमुक्त में-
ओ मेरे अफसानों के नायक
क्यों अच्छी लगती है
जब कोई रास्ता न मिले
जिस्मों की कैद में
तुम्हारी सरकार
मौत
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तुम्हारी सरकार
गंवाने को कुछ भी नहीं है मेरे पास
एक अदद नौकरी भी नही
संपत्ति नही
काग़़ज पर लिखी मेरे पिता की विरासत नहीं
मैं किस लिए डरूं तुम्हारी सरकार से
चिल्लाहट से उसके कानों के परदे फाडूंगा
अख़बारों में करूंगा उसका चरित्र हनन
सरे बाज़ार नंगा करूंगा
अपने फेफडों की तमाम ताक़त लगा
उस के खिलाफ़ नारा बुलंद करूंगा
क्यों डरूंगा मैं तुम्हारी सरकार से
जो गुंडों से गर्भ धारण करती है
बेहयाई से जन्म देती है घृणा को
हमें आपस में लड़वा कर
विदेशी कंपनी के कदम चूमती है
मैं विरोध करता हूं
यह मेरी और हमारी सरकार नहीं
जो मेरी मजदूरी गिरवी रख
कोठे पर रात गुज़ारती है
सरसराती है हमारे कफ़न के लिए
अमेरिका से हथियार ख़रीदती है
हमारी सरसों पड़ी रहती है मंडियों में
इधर रात को रेस्ट हाउस में कार ठहरती है
यह तुम्हारी तुम्हारे अफ़सरों की
यह मेरी और हमारी सरकार नही!
१६ दिसंबर २००५ |