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अनुभूति में रवीन्द्र बतरा की
कविताएँ-

छंदमुक्त में-
ओ मेरे अफसानों के नायक
क्यों अच्छी लगती है
जब कोई रास्ता न मिले
जिस्मों की कैद में
तुम्हारी सरकार
मौत

 

जिस्मों की कैद में

एक जिस्म है तेरे पास
एक जिस्म है मेरे पास
और हमारी व्याकुल आत्माएँ
कैद हैं उनमें!
पता नही कब
ये संभव होगा
कि हम अपने जिस्मों की हिफ़ाज़त के बिना
ठीक से मिल पाएँगें
और अपने सुख-दुख की बातें और
फुर्सत के क्षण निकाल पाएँगे!
ये जिस्म
सिर्फ़ जिस्म नहीं
इनका समाज है
नियम
और कायदे कानून हैं
व्यस्तताएँ और ज़रूरतें हैं!
ये जिस्म
जिसकी गर्म इच्छाएँ
और स्वार्थ हैं
और इसमें कैद हैं
हमारी व्याकुल आत्माएँ!
कब मिल पाएँगे हम
एक-दूसरे से
अपने जिस्मों के बिना!

१६ दिसंबर २००५

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