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अनुभूति में रवीन्द्र बतरा की
कविताएँ-

छंदमुक्त में-
ओ मेरे अफसानों के नायक
क्यों अच्छी लगती है
जब कोई रास्ता न मिले
जिस्मों की कैद में
तुम्हारी सरकार
मौत

 

क्यों अच्छी लगती हो!

उस दिन तुमने
गोबर से आंगन लीपते हुए
आंखे झुका कर पूछा था
'मैं तुम्हें इतनी अच्छी क्यों लगती हूं?'
मैं तब कुछ कह नही पाया था
मैं कहना चाहता था
तुम्हारी देह से फूटती है
मेरे खेतों की मिट्टी की महक
तुम गेहूं सी लहलहाती हो
मेरे आंगन में
और कि
मैं तुम्हारी आंखों में देखता हूं
दुनिया भर की धरती
जिसमें हिम्मत की फसल
लहलहाती है!

१६ दिसंबर २००५

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