अनुभूति में
पृथ्वीपाल रैणा
की रचनाएँ-
1
छंदमुक्त में-
अंतर्मुखी अँधेरे बहिर्मुखी उजाले
एक खिलौना मैं
दिल
मेरी धरती मेरा आसमान
साँसों के समंदर में
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एक खिलौना- मैं
भूत-भविष्य में ना जाने
इतना आकर्षण कैसे है।
जो सम्मुख है उस पल को
मैं भी ठुकरा देता हूँ।
क्यों मन भी मरघट की नाईं
मुर्दों को ही सहलाता है।
न जाने क्यों
सोच अजन्मों के बारे में
इतना भय उपजाता है।
पश्चिम में जब
ढलते सूरज को देखें
तब लगता है
इतना थका हुआ है
बेचारा कल कैसे उग पाएगा।
लेकिन सूरज तो अडिग
खड़ा है एक जगह
वह बेचारा
भूत-भविष्यत् क्या जाने।
मैं ही बौराया हूँ
मन के समझाने से
सूरज को भी थका हुआ
कहने लगता हूँ।
कल क्या होगा
इसका डर भीतर जगते ही
बीते कल से
खोज के कड़ियाँ
मन ही मन
सपने बुनता हूँ।
सोच है शायद
सोच ही होगी
मृत सपने कैसे जीतेंगे
जीवित भय को
फिर भी मानव जीवन
ऐसे ही चलता रहता है।
मैं तो केवल
एक खिलौना हूँ
मन के हाथों में
वह जैसे चाहेगा
मुझसे खेलेगा ही।
१ जुलाई २०१६ |