अनुभूति में
पृथ्वीपाल रैणा
की रचनाएँ-
1
छंदमुक्त में-
अंतर्मुखी अँधेरे बहिर्मुखी उजाले
एक खिलौना मैं
दिल
मेरी धरती मेरा आसमान
साँसों के समंदर में
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अंतर्मुखी अँधेरे,
बहिर्मुखी उजाले
अँधेरों का कोई रंग नहीं होता
उजाले ही रंगों से छलते हैं।
आँखें उजालों की मोहताज हैं
तभी तो छली जाती हैं।
जिन्हें अँधेरों में देखने
की कला आती है
वे कभी छले नहीं जाते।
अँधेरों में समता होती है
और उजाले विषम होते हैं।
आदमी को विषमता से नहीं
समता से डर लगता है
क्योंकि समता में निरपेक्षता होती है।
आदमी सापेक्षता चाहता है
इसमें उसे अपने होने का
आभास होता है।
निरपेक्षता उसे एक जाति बना देती है
व्यक्ति नहीं रहने देती।
आदमी व्यक्ति ही बना रहे
जाति न बन जाए
इसीलिए शायद वह
अँधेरों से डरता है।
१ जुलाई २०१६ |