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वक्त कम
है
लगता है कभी
कि कितने काम
बाकी हैं अभी
रोकनी है
सूरज की गति
रोकना है
रात का बड़ा होना
सहेजने हैं सारे तारे
उगाने हैं मरुभूमि में
हरे भरे पेड़
तोड़नी है पहाड़ों की
चिर समाधि
खोजनी है
नदियों की चपलता
लानी है समुन्दर में मिठास
कैसे होगा इतना काम
वक्त कम है ।
पर फिर लगता है कभी
क्यों हूँ इस दुनिया में
इस उल्टी पुल्टी दुनिया में
खोज ही लूँ मार्ग
मुक्ति का, मोक्ष का
आनंद का
और निकल लूँ धीरे से
वक्त कम है।
पर क्या स्वयं की ही मुक्ति
खोज लेना कायरता तो नहीं
ये प्रश्न कचोटता है बार- बार
खोजना है अपार पंथ
वक्त कम है।
२४ फरवरी २०१४ |