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गुलाबी रंग
आज फिर लिया मैंने
एक गुलाबी रंग
जैसे ही कम पड़ने लगता है
गुलाबी रंग
उठा लाती हूँ
कभी बाल्टी, कभी चादरें
कभी कपड़े
जिन्दगी का चलता ये धारावाहिक
आ जाता है जब भी
एक भावुक मोड़ पर
गुल होने लगती है रोशनियाँ
बढ़ने लगता है अँधेरा
रुँधने लगते हैं पात्रों के गले
खुलने लगते हैं भीतरी दरवाजे
और सुनाई पड़ने लगती है
कुँडली मारे भीतर सोए
इच्छाओं के शेष नाग की
फुफकारने की आवाज
मैं झट से खरीद लाती हूँ
गुलाबी रंग
और उड़ेल देती हूँ भीतर बाहर
दुनिया रचने वाले ने
हमारे लिए ही तो
बनाया है ये गुलाबी रंग
ताकि बची रहे
उसकी जमात
ये पूरी कायनात
जो टिकी है हमारी इच्छाओं के
शेष नाग के फन पर ।
२४ फरवरी २०१४ |