अनुभूति में
नेहा शरद की रचनाएँ -
छंदमुक्त में--
खेल
जिंदगी का हिसाब
तीन परिस्थितियाँ
हाँ यह ठीक है
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खेल
हँसती- खेलती, दौड़ती- भागती
मेरी माँ,
नीली फ्राक में नज़र आती है मुझे
जब भी यह एहसास होता है कि अब,
मैं बड़ी हो गयी हूँ..
तुम नज़र आती हो एक सहेली की तरह,
जिसे देखती हूँ जाते
जैसे किसी खेल में हरा कर बढ़ गयी हो आगे...
एक क्षण में लम्बी उम्र दे दी,
तुमने मुझे,
ख़ुद तो चल दी उसके पीछे- पीछे
जिसके लिए आई थीं नीचे
तुम्हे पता था, तुम्हे क्या चाहिए,
मुझे तो यह भी नहीं मालूम
की हम जो खेले,
वह खेल क्या था
ज़रा नीचे भी तक लो
दिन- भर तुम्हारे साथ खेलकर
थकी अकेली मैं
सकपकाई खड़ी हूँ...
अधूरा खेल छोड़ कर जाना क्या अच्छा है।
जब मेरा "दाम' आया तो दामन
छुड़ा कर निकल ली,
तुम शायद खेल जानती थीं,
समझ कर आगे बढ़ गयी,
और मैं
इस ख़ामोशी के आकाश
को तकती हूँ।
१५ नवंबर २०१० |