अनुभूति में
मनोज चौहान
की रचनाएँ
छंदमुक्त
में-
तोहमतें
बड़ी अम्मा
बस्ती का जीवन
मंजिलों की राहें
मेरी बेटी |
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बस्ती का जीवन
उस बस्ती से गुजरते हुए
मैं अक्सर देखता हूँ
तम्बुओं में रहने वाले
उन लोगों का जीवन
भूखे पेट ही शुरू होती है
जिनकी दिनचर्या
सुबह होते ही सड़कों पर
निकल आते हैं वो नन्हें कदम
उठाये हुए थैले
पुरानी रद्दी और लोहे का सामान
इकठठा करने को
निकल आती हैं स्त्रियाँ घर से
ताकि जुटा सके वो इंधन
शाम के चूल्हे के लिए
बरसात हो, धूप हो या कड़ाके की सर्दी
नंगे पाँव चलते अक्सर देखता हूँ उनको
वो लोग जो नहीं जानते कि घर क्या होता है
मगर परिचित हैं वो, घर ना होने की पीड़ा से
उन असहाय आँखों में भी
कुछ तो होते हैं सपने
वो नहीं चाहते दुनिया का एशो-आराम
बस दो बक्त का खाना
बदन पर कपडे और सिर पर एक छत
यहीं तक सीमित है उनके सपनों की दुनिया
सुबह से शाम तक वो करते हैं मेहनत
ताकि जल सके चूल्हा शाम को
और फिर चार निवाले खाकर
मूँद लेते हैं आँखें
ताकि उठ सकें सुबह फिर से
वही दिनचर्या दोहराने को
२७
अप्रैल २०१५
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