अनुभूति में
कुहेली भट्टाचार्य
की रचनाएँ
कविताओं में-
इंतज़ार में रहेगा सवेरा
एक बीज
घास के वक्ष से
तुम भी ठहरो
रोशनी होगी
वादा
सौंधी सुगंध
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रोशनी होगी
कहीं तो रोशनी होगी जो
मेरे दोनों तरफ़ दो काली परछाइयाँ होती हैं।
अँधेरे में भी अँधेरा कम
अकेले में भी अकेला कम
कहीं तो कुछ ज़रूर है
जो रोशनी दिखाई नहीं देती
क्यों रोशनी दिखाई नहीं देती?
शायद चाँदनी सो गई हो,
अँधेरा चलते-चलते रुक गया हो
इसलिए भोर नहीं हुई।
सूरज भूल गया है रास्ता
खुशबू भूल गई है बाग
फिर भी. . .
कहीं न कहीं से रोशनी आती होगी
जो दोनों परछाइयाँ हरदम
मेरे पीछे हैं
नज़रों से बचकर।
तन्हाइयों में भी तन्हा नहीं मैं
डूब कर अपने में सागर पाया।
आसमान छोटा पड़ गया
तारे टिमटिमाना भूल गए
हवा फिर भी बह रही है
आँखों का काजल उतरा नहीं
तभी तो भोर नहीं आई
चाँदनी सो चुकी है
पर, परछाइयाँ अब भी हैं
जड़ चली गई मिट्टी की गहराई में
परछाइयाँ हैं अब भी
और अकेले में भी अकेली नहीं मैं।
9
मई
2007
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