अनुभूति में
कविता वाचक्नवी
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तुम्हारे वरद-हस्त
मेरे पिता !
एक दिन
झुलस गए थे तुम्हारे वरद-हस्त,
पिघल गई बोटी-बोटी उँगलियों की।
देखी थी छटपटाहट
सुने थे आर्त्तनाद,
फिर देखा चितकबरे फूलों का खिलना,
साथ-साथ
तुम्हें धधकते
किसी अनजान ज्वाल में
झुलसते
मुरझाते,
नहीं समझी
बुझे घावों में
झुलसता
तुम्हारा अन्तर्मन
आज लगा........
बुझी आग भी
सुलगती
सुलगती है
सुलगती रहती है।
16 नवंबर 2007 |