अनुभूति में
कविता वाचक्नवी
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कीकर
जल
तुम्हारे वरद हस्त
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माँ
मैं कुछ नहीं भूली
मैंने दीवारों से पूछा
रक्त नीला
सूर्य नमस्कार
मुक्तक में
घरः दस भावचित्र
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मैंने दीवारों से पूछा
चिह्नों भरी दीवारों से पूछा मैंने
किसने तुम्हें छुआ कब - कब
बतलाओ तो
वे बदरंग, छिली - खुरचीं- सी
केवल इतना कह पाईं
हम तो
पूरी पत्थर- भर हैं
जड़ से
जन से
छिजी हुईं
कौन, कहाँ, कब, कैसे
दे जाता है
अपने दाग हमें
त्यौहारों पर कभी
दिखावों की घड़ियों पर कभी - कभी
पोत- पात, ढक - ढाँप - ढूँप झट
खूब उल्लसित होता है
ऐसे जड़ - पत्थर ढाँचों से
आप सुरक्षा लेता है
और ठुँकी कीलों पर टाँगे
कैलेंडर की तारीख़ें
बदली - बदली देख समझता
इन पर इतने दिन बदले।
16 नवंबर 2007 |