अनुभूति में
कविता वाचक्नवी
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मैं कुछ नहीं भूली
सब याद है मुझे
हमारे आँगन का ‘नलका’
‘खुरे’ में बैठ
‘मौसी’ का बर्तन माँजना
डिब्बे में राख रख
इक जटा- सी हाथ पकड़।
काले हाथों पर
लकड़ियों के चूल्हे की
सारी कालिख......
याद है मुझे ।
जाने कितने घरों में काम करती थी ‘मौसी’
मेरे मुँह ‘बर्तनोंवाली’ सुन
‘मौसी’ का गुस्सा
गुस्से में बड़- बड़
याद है मुझे।
फिर कभी ‘मौसी’ कहना
नहीं भूले हम।
आज लगता है -
मैंने उसका दिल गल - घिसाया था।
पूस माघ की ठण्डी रातें
‘मौसी’ के गले हाथ
सब याद है मुझे।
स्कूल के बाहर
छाबड़ी-सी ले
चूरन बेचता ‘मौसी’ का पति
आधी राह छोड़ चला गया ;
तीन-तीन बेटियों का विवाह
सब याद है मुझे।
मुझे ब्याह की असीस
"जीती रह मेरी बच्ची"
‘मौसी’ का दुपट्टा
हाथ-पोंछते हाथ
सब याद है मुझे।
16 नवंबर 2007 |